नई दिल्ली
राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने चीन के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज कसा है। बकौल स्वामी, चीन ने ‘लद्दाख के हिस्सों पर कब्जा’ लिया है और मोदी ‘बेहोशी की हालत’ में है। भाजपा के राज्यसभा सांसद ने बुधवार को एक ट्वीट में पूर्व प्रधानमंत्रियों- जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी को भी लपेट लिया। स्वामी ने कहा कि नेहरू और वाजपेयी की ‘बेवकूफी’ के चलते हम भारतीयों ने तिब्बत और ताइवान को चीन का हिस्सा स्वीकार कर लिया। बीजेपी नेता ने लिखा कि ‘लेकिन अब चीन साझा सहमति वाली LAC को मानने से इनकार करता है और लद्दाख के हिस्सों पर कब्जा कर चुका है जबकि मोदी ‘कोई आया नहीं’ कहते हुए जड़ हैं।’ स्वामी ने तंज कसते हुए कहा कि ‘चीन को पता होना चाहिए कि फैसला करने के लिए हमारे यहां चुनाव होते हैं।’ स्वामी के इस ट्वीट पर बहुत से लोग पूछ रहे हैं कि भारत ताइवान को मान्यता क्यों नहीं देता या उससे ऑफिशियल डिप्लोमेटिक रिश्ते क्यों नहीं हैं।
स्वामी का यह बयान अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बीच आया है। चीन इस यात्रा से बिलबिला गया है और लगातार अमेरिका को धमकी देते हुए भौंहें तरेर रहा है। चीन और भारत के बीच पहले से ही तनाव है। दोनों देशों की सेनाएं अप्रैल-मई 2020 से पूर्वी लद्दाख में कई पॉइंट्स पर आमने-सामने हैं। 16 दौर की बातचीत के बावजूद डिसइंगेजमेंट पर अंतिम सहमति नहीं बन सकी है।
सुब्रमण्यम स्वामी का ट्वीट
नेहरू और वाजपेयी का जिक्र क्यों?
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के समय में तिब्बत के साथ रिश्ते कमजोर होते गए। 1952 में ल्हासा स्थित डिप्लोमेटिक मिशन को डाउनग्रेड कर कांसुलेट जनरल कर दिया गया। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद वह भी बंदकर दिया गया। भारत ने बार-बार ल्हासा में कांसुलेट खोलने की मांग रखी है मगर चीन नहीं माना। हाल के दशकों में तिब्बत पर भारत की पोजिशन चीन को नाराज ना करने की रही है। 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की चीन यात्रा के बाद जारी साझा बयान में तिब्बत को चीन का ‘ऑटोनॉमस रीजन’ बताया गया था। जून 2003 में तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की चीन यात्रा के बाद संयुक्त घोषणा में भी भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि 2003 में ही भारत ने तिब्बत पर चीन की ‘संप्रभुता’ को स्वीकार कर लिया।
ताइवान के साथ डिप्लोमेटिक रिश्तों से भारत कतराता रहा है। 1990s के बाद से दोनों के रिश्तों में सुधार आया। हालांकि ‘लुक ईस्ट’ नीति के तहत भारत ने व्यापार और निवेश समेत अन्य कारोबारी क्षेत्रों में संबंध मजबूत किए हैं। चीन लगातार मांग करता आया है कि भारत ‘वन चाइना पॉलिसी’ जारी रखे। भारत ने ताइवान पर रुख ठंडा इसलिए भी रखा क्योंकि वह नहीं चाहता कि कश्मीर और पूर्वोत्तर में चीन का दखल बढ़े।