कट्टरवाद को पंच मारने वाली बॉक्सर बेटी निकहत जरीन ने देश को दिलाया गोल्ड मेडल

बर्मिंघम

निकहत जरीन अपने ताकतवर मुक्कों से जीत की कहानी लिखती रहीं हैं। इस साल वर्ल्ड चैंपियन बनने के बाद अब कॉमनवेल्थ खेलों में गोल्ड मेडल जीतना 26 साल की इस युवा बॉक्सर के करियर का बड़ा माइल स्टोनमाना जाएगा। उनका प्रदर्शन इस बात की गवाही देता है कि देश को अगली मैरीकॉम मिल गई है। अब देश को पेरिस 2024 ओलिंपिक में उनसे गोल्ड की उम्मीद होगी। निकहत ने अपने ताबड़तोड़ मुक्कों से प्रतिद्वंद्वी कार्ली मैकनॉल को टिकने नहीं दिया और 50 किलोग्राम फाइनल का गोल्ड जीता।

इस वजह से खास है यह पदक
निकहत जरीन ने इस साल मई में तुर्की के इस्तांबुल में हुई विश्व बॉक्सिंग चैंपियनशिप की फ्लाईवेट (52 किलाग्राम) स्पर्धा में गोल्ड जीता था। मगर कॉमनवेल्थ गेम्स में 52 किलोग्राम की बजाय 50 किलोग्राम वर्ग होता है इसलिए उन्हें दो किलाग्राम वजन कम करना था। यह मानसिक रूप से भी उनके लिए एक चुनौती थी।

13 साल की उम्र में शुरू की बॉक्सिंग
14 जून 1996 को आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के निजामाबाद में मुहम्मद जमील अहमद और परवीन सुल्ताना के घर पैदा होने वाली निकहत को बचपन से ही खेलों में रुचि थी। उन्होंने निजामाबाद के ही निर्मल हृदय गर्ल्स हाई स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की और हैदराबाद के एवी कॉलेज से कला स्नातक की डिग्री हासिल की। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने बॉक्सिंग शुरू कर दी थी।

जूनियर लेवन पर ही छाया नाम
जब 2009 में उन्होंने विशाखापत्तनम स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण में आईवी राव से मुक्केबाजी का बाकायदा प्रशिक्षण लेना शुरू किया। द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित गुरू के मार्गदर्शन में निकहत ने स्थानीय प्रतियोगिताओं में भाग लेकर अपने प्रदर्शन में लगातार सुधार किया और 2010 में नेशनल सब जूनियर मीट में अपना पहला स्वर्ण पदक जीतकर अपने अभियान की सुनहरी शुरूआत की।

इस्लामिक कट्टरवाद को पंच मारती निकहत
निकहत का यह मेडल इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने और उनके परिवार ने समाज की खरी-खोटी सुनी। आलोचनाओं का सामना किया। लड़कियों को पर्दे में रहना चाहिए। प्रैक्टिस और मैच के दौरान छोटे कपड़े नहीं पहनने चाहिए जैसे कई रूढ़ी और कट्टरवादी सोच के खिलाफ वह लड़ती गईं और आगे बढ़ती गईं। हर बाउट से पहले निकहत को शारीरिक, मानसिक रूप से तैयार रहने के अलावा सामाजिक तौर पर भी मोर्चा संभालना पड़ता था।

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