संसद का शीतकालीन सत्र तय समय से 6 दिन पहले ही खत्म हो गया। माननीयों को क्रिसमस और न्यू ईयर की छुट्टी जो चाहिए थी। 7 दिसंबर से शुरू हुआ सत्र 29 दिसंबर तक चलना था लेकिन 23 दिसंबर को ही संसद के दोनों सदनों की कार्यवही अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी गई। सत्र के दौरान कार्यवाही कभी सत्ता पक्ष तो कभी विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ रही थी। विपक्ष एलएसी के हालात पर चर्चा की मांग को लेकर हंगामा कर रहा था तो सत्ता पक्ष खरगे के ‘कुत्ता तक नहीं मरा’ बयान पर। लेकिन छुट्टी के मुद्दे पर माननीयों में सर्वसम्मति दिखी। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष इस पर दोनों वैसे ही सहमत थे जैसे खुद की सैलरी-पेंशन बढ़ाने को लेकर होते हैं।
शीतकालीन सत्र में कामकाज का लेखा-जोखा
शीतकालीन सत्र में सरकार की मंशा 23 बिल को पास कराने की थी जिनमें 16 नए थे और 7 पुराने जो दोनों में से किसी एक सदन से पास हो चुके थे। लेकिन लोकसभा में पास हुए सिर्फ 7 बिल और राज्यसभा में 9 विधेयक। कुल मिलाकर दोनों सदनों से कुल 9 बिल पास हुए। अगर तय समय तक संसद चलती तो निश्चित तौर पर कुछ और बिल भी पास होते और चर्चा भी होती लेकिन जरूरी तो छुट्टी है। काम का क्या है, होता रहेगा। आखिर बात माननीयों की जो है। सत्र के दौरान लोकसभा और राज्यसभा में 13 दिन काम हुआ जबकि होना 17 दिन था। लोकसभा की प्रोडक्टिविटी 97 प्रतिशत रही तो राज्यसभा की 102 प्रतिशत। इस दौरान राज्यसभा में 13 दिनों में कुल 64 घंटे 50 मिनट काम हुआ।
लगातार आठवां सत्र जो समय से पहले खत्म हुआ
ये लगातार आठवां सत्र है जो समय से पहले ही खत्म हो गया। इस सत्र में संसद सिर्फ 13 दिन बैठी जो 17वीं लोकसभा के सबसे छोटे सत्र में से एक है। मौजूदा लोकसभा में इससे छोटा बस 2020 का मॉनसून सत्र था जब कोरोना महामारी के शुरुआती दिनों की वजह से 10 दिन ही संसद बैठी थी।
छुट्टी जरूरी…काम का क्या है, होता रहेगा!
सर्वसम्मति से समय से पहले संसद का सत्र खत्म करने का मतलब ये भी हो सकता है कि देश की सबसे बड़ी पंचायत के पास करने के लिए कोई काम ही न बचा हो। माननीयों के पास सदन में उठाने के लिए जनहित का कोई मुद्दा ही न बचा हो। आपको भी पता है कि ऐसा नहीं है। बहुत काम हैं। अहम मुद्दों पर चर्चाएं हो सकती थीं। जनहित के मामले उठ सकते थे। कुछ और बिल पास कराए जा सकते थे। लेकिन काम का क्या है, होता रहेगा। सबसे अहम तो माननीयों की छुट्टी है। एक तो पहले से ही सत्र का दिन कम रखा गया था लेकिन उसे भी 6 दिन पहले खत्म कर दिया गया। संसद के हर मिनट की कार्यवाही पर ढाई लाख का खर्च आता है यानी एक घंटे में डेढ़ करोड़ का खर्च। समय से पहले 4 कामकाजी दिनों का सीधा-सीधा नुकसान हुआ। अगर हर दिन 8-10 घंटे भी काम हो तो उस पर टैक्सपेयर का 12 से 15 करोड़ रुपये खर्च होगा। यानी 4 दिनों में 48 से 60 करोड़ रुपये का सीधा नुकसान। सदन की जो कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ी वो अलग। और वैसे भी हर मिनट ढाई लाख खर्च का ये आंकड़ा 4-5 साल पुराना है।
अदालतों की छुट्टियां दिखती हैं लेकिन अपनी नहीं
इसी शीतकालीन सत्र में कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने अदालतों की लंबी-लंबी छुट्टियों पर सवाल उठाया था कि इससे पेंडेंसी की समस्या और बढ़ रही है। वादियों को परेशान होना पड़ रहा। कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ला ने भी सवाल उठाया। लेकिन माननीयों को अपनी छुट्टियां नहीं दिखतीं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। लेकिन ये तो हक है हमारे माननीयों का। उनकी छुट्टियों का क्या है, जिस दिन चाह लिया, जब चाह लिया उस दिन छुट्टी। कौन सी उनकी सैलरी कट जाएगी। सैलरी तो आनी ही है। जीवनभर पेंशन भी आनी है। वे माननीय हैं, माननीय। कोई आम आदमी थोड़े हैं।