अगरतला
त्रिपुरा विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी पारा चढ़ चुका है। पांच साल पहले वाम दलों के 25 साल के विजय अभियान को समाप्त करने बाद भाजपा सत्ता में लौटी थी। लेकिन इस बार भाजपा के लिए यह चुनावी लड़ाई बहुत आसान नहीं दिखाई देती है। भाजपा को इस चुनाव में तीन तरफ से चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जहां एक तरफ माकपा-कांग्रेस गठबंधन भाजपा के सामने एक मजबूत चुनौती है वहीं स्थानीय आदिवासी पार्टी टिपरा मोथा और टीएमसी भी भाजपा को कड़ी चुनौती देते दिखाई दे रहे हैं।
क्या हैं समीकरण ?
त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी भाजपा अपने ट्रैक रिकॉर्ड पर भरोसा कर रही है। सार्वजनिक सेवाओं और कल्याणकारी योजनाओं के वितरण में अपनी “दक्षता” और “पारदर्शिता” निभा रही है। जैसा कि भाकपा के नेतृत्व वाली पिछली सरकार ने दिखाने की कोशिश की थी। आखिर क्या हैं त्रिपुरा के चुनावी समीकरण और किन आधार पर टिकी है यहां की राजनीति, आइए समझते हैं
आदिवासी वोट
60 सदस्यीय विधानसभा में 20 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। आदिवासी वोट की यहां निर्णायक भूमिका तय होने में खास पकड़ होती है। 2011 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या में आदिवासियों की हिस्सेदारी घटकर 31.8 प्रतिशत रह गई है। इसने एक भयंकर जातीय संघर्ष को जन्म दिया जो अब थम गया है। लेकिन समय-समय पर स्वदेशी संगठन संस्कृति, राजनीति और प्रशासन के क्षेत्र में बंगाली समुदाय के आधिपत्य के खिलाफ आदिवासियों की चिंता और आक्रोश का फायदा उठाते हैं।
स्थानीय आदिवासी पार्टी टिपरा मोथा एक ऐसी पार्टी है जिसने आदिवासी समुदाय के मुद्दों को बहुत सजगता से उठाया है। जिसने 19 अधिसूचित समुदायों के बीच बंटे आदिवासियों के एक बड़े वर्ग की कल्पना पर कब्जा कर लिया है।टिपरा मोथा पार्टी ने 42 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं, इसका प्रभाव काफी हद तक एसटी-आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों तक सीमित है। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में यह किंगमेकर साबित होंगे।
बंगाली वोट
राज्य की आबादी का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा बंगाली समुदाय लंबे समय तक वामपंथी और कांग्रेस के बीच बंटा हुआ था। जबकि वामपंथियों ने मजदूर वर्ग की आबादी के बीच गहरी पैठ बना ली थी। बौद्धिक वर्ग के अलावा, कांग्रेस का शहरी केंद्रों में मजबूत प्रभाव बना रहा। हालांकि इस स्थिति में 2018 में भाजपा के उदय के साथ बदलाव आया। भाजपा बड़े पैमाने पर पारंपरिक कांग्रेस मतदाताओं द्वारा दिए गए समर्थन पर सवार होकर सत्ता में आई।
कट्टर प्रतिद्वंद्वी वाम मोर्चा और कांग्रेस इस बार सीटों के बंटवारे के समझौते को अंतिम रूप दे रहे हैं, यह देखना दिलचस्प होगा कि बंगाली किस ओर झुकते हैं। भाजपा को लगता है कि बंगाली मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को वाम-कांग्रेस की व्यवस्था रास नहीं आएगी। भाजपा यह भी उम्मीद कर रही है कि टीआईपीआरए मोथा के उदय से उत्पन्न चिंता पार्टी के पीछे बंगाली वोटों के समेकन का कारण बनेगी। इन दो फैक्टर्स के अलावा पूर्व शाही परिवार जिन्हें अगरतला का दिल कहा जाता है। यहां की राजनीति में इस परिवार का भी काफी प्रभाव है।