नई दिल्ली
हाइपरऐक्टिव डिप्लोमेसी ने दुनियाभर में भारत का झंडा बुलंद किया है। भारत की कूटनीति का डंका बज रहा है। मकसद साफ है, भारत एक ग्लोबल सुपरपावर बनना चाहता है। हालांकि, सेंटर फॉर सोशल एंड इकॉनमिक प्रोग्रेस के फेलो- कॉन्स्टैंटिनो जेवियर और रिया सिन्हा को लगता है कि विश्व गुरु बनने का सपना तब तक सपना ही रहेगा जब तक भारत अपनी विदेश नीति की क्षमताएं नहीं बढ़ाता।’टाइम्स ऑफ इंडिया’ के लिए अपने लेख में दोनों ने कहा है कि डिप्लोमेट्स को और रिसोर्सेज और एक्सपर्टीज की जरूरत है। तभी वे पार्टनर देशों का सहयोग और दुश्मनों से प्रतियोगिता कर पाएंगे। भारत को G20 की अध्यक्षता मिली है। सैकड़ों बैठकें होंगी और देश सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में से एक की मेजबानी करेगा। भारत ने नए साझेदारियां भी गढ़ी हैं, फिर चाहे QUAD हो या इंटरनैशनल सोलर अलायंस या फिर इंडो-पैसिफिक ओशन इनिशिएटिव। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज्यादा विदेश यात्राएं किसी और भारतीय नेता ने नहीं की। पीएम बनने के शुरुआती चार साल में ही मोदी ने 84 देशों की यात्रा कर डाली थी। जेवियर और रिया लिखते हैं कि फॉरेन पॉलिसी में सक्रियता विदेश में भारत का प्रभाव बढ़ाने के लिए जरूरी है, मगर काफी नहीं।
विदेश मंत्रालय का बजट ‘ऊंट के मुंह में जीरा’
जेवियर और रिया का सुझाव है कि भारत को विदेश मंत्रालय के ह्यूमन और फायनेंशियल रिसोर्सेज में इनवेस्ट करना चाहिए। पिछले बजट में विदेश मंत्रालय के लिए सिर्फ 17,000 करोड़ रुपये अलॉट किए गए थे। इसी का जिक्र करते हुए संसद की एक समिति ने हाल ही में चेतावनी दी थी कि ‘यह अलॉटमेंट दुनिया में देश के बढ़ते रसूख से मेल नहीं खाती।’ अलॉकेशन डबल किए जाने की डिमांड के बावजूद इस साल विदेश मंत्रालय के बजट में थोड़ा ही इजाफा किया गया है।
भारत के पास डिप्लोमेट्स बेहद कम
डिप्लोमेसी को आराम की नौकरी समझा जाता है, हालांकि हकीकत इससे जुदा है। भारतीय डिप्लोमेट्स काम के बोझ तले दबे हैं। जेवियर और रिया लिखते हैं कि विदेश मंत्रालय में सुधार के लिए तीन कदम उठाने की जरूरत है। पहला, MEA को जनरल और एक्सपर्ट कैडर में रिक्रूटमेंट बढ़ाती चाहिए। भारतीय विदेश सेवा (IFS) में कुछ हजार अधिकारी ही हैं। IFS की संख्या अभी पुर्तगाल या न्यूजीलैंड के बराबर है। डिप्लोमेट्स की संख्या के मामले में हम अमेरिका और चीन के आगे कहीं नहीं ठहरते। ह्यूमन रिसोर्स को बढ़ाने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि हाल ही में 23 नए डिप्लोमेटिक मिशन खोलने की घोषणा हुई है, इनमें से 18 अकेले अफ्रीका में हैं। रोजमर्रा की कूटनीति में उलझे भारतीय डिप्लोमेट्स को प्लान और स्ट्रैटजी बनाने का वक्त ही नहीं मिल पाता।
पड़ोसियों को फंड देना होगा
दूसरी प्राथमिकता डिप्लोमेसी को इतना सशक्त बनाने की होनी चाहिए कि वह विदेश में आर्थिक और तकनीकी सहयोग कर सके, खासतौर से दक्षिण एशिया में। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी पिछले दिनों कहा, ‘जब मैं एक पड़ोसी में निवेश करता हूं, मैं अपने आप में निवेश कर रहा होता हूं।’ नेपाल को रेलवे के लिए आर्थिक मदद हो या भूटान के हाइड्रोपावर सेक्टर को डिवेलप करना या फिर श्रीलंका के पोर्ट्स का आधुनिकीकरण… ये सब आर्थिक स्वतंत्रता के जरिए स्ट्रैटीजिक लेवरेज लेने की कोशिशें हैं। MEA के बजट का करीब एक-तिहाई (6,000 करोड़ रुपये) ऐसे ही कामों में जाता है। हालांकि, चीन के मुकाबले हम कुछ खास नहीं कर पा रहे। भारत को क्षेत्रीय प्रोजेक्ट्स में वित्तीय अलॉकेशन बढ़ाना होगा।
UN को भी देना होगा पैसा
जेवियर और रिया का तीसरा सुझाव है कि भारत को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में ज्यादा से ज्यादा योगदान करना चाहिए। इसके उलट, इस साल संयुक्त राष्ट्र के लिए MEA ने बजट में 50% की कटौती की है। बिहार की नालंदा इंटरनैशनल यूनिवर्सिटी पर MEA इससे ज्यादा खर्च करता है। कम योगदान से यूएन में भारत का प्रभाव बढ़ाने की कोशिशों को झटका लगेगा।