नई दिल्ली
नेटफ्लिक्स के चर्चित शो ‘बेबी रेनडियर’ में एक भयावह दृश्य दिखाया गया है जहां एक बाई-सेक्सुअल शख्स का यौन उत्पीड़न और बलात्कार किया जाता है। यह देखना कठिन है लेकिन भारत में सेक्सुअल क्राइम के शिकार पुरुषों के लिए वास्तविकता और भी डराने वाली है। भारतीय न्याय संहिता (BNS), जिसने आईपीसी की जगह ली है, इसमें धारा 377 को हटाने के कारण पुरुषों के खिलाफ सेक्सुअल क्राइम को मान्यता नहीं दिया गया है। ट्रांसजेंडर लोगों के लिए अब पूरी तरह से ट्रांसजेंडर एक्ट 2019 पर निर्भर रहना होगा। इसमें महिलाओं से बलात्कार के कानून की तुलना में काफी कम सजा का प्रावधान है। आईपीसी और बीएनएस दोनों के तहत बलात्कार कानून, अपराधी को पुरुष और पीड़ित को महिला के रूप में परिभाषित करता है।
धारा 377 हटने पर उठाए जा रहे सवाल
इस बदलाव ने पुरुष और ट्रांसजेंडर सेक्सुअल अटैक के शिकार लोगों को कानूनी सुरक्षा के बिना छोड़ दिया है। LGBTQ+ कार्यकर्ता और कानूनी विशेषज्ञ इस बदलाव की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यह उन लोगों के साथ भेदभाव करता है जो पुरुष या महिला नहीं हैं। उनका कहना है कि इससे पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन हिंसा को कम करके आंका जाता है और अपराधियों को सजा से बचने का मौका मिलता है। लॉयर्स कलेक्टिव की डिप्टी डायरेक्टर और वकील तृप्ति टंडन कहती हैं, ‘यह सोचना कि पुरुषों का यौन उत्पीड़न नहीं होता, सरासर गलत है। धारा 377 का इस्तेमाल पुरुषों की ओर से कई साल से उनके खिलाफ सेक्सुअल अटैक के मामलों में किया जाता रहा है। कानून उन हजारों लोगों को नजरअंदाज नहीं कर सकता जिन्होंने ऐसा किया है। वह बताती हैं कि इस दौरान चोट और गंभीर हालात जैसी धाराएं लागू की जा सकती हैं, लेकिन ये अपराध की यौन प्रकृति को नहीं दर्शाती है।
LGBTQ वर्कर्स का क्या कहना है
एलजीबीटीक्यू कार्यकर्ता हरीश अय्यर कहते हैं कि जब वह नब्बे के दशक के अंत में एक सर्वाइवर के रूप में सामने आए, तो वह बहुत अकेले थे। लेकिन अब, बहुत से लोग आगे आकर बोल रहे हैं। ऐसे में वही पुराने बहाने अब लागू नहीं होते। इसके अलावा, भले ही कोई तर्क दे कि पुरुषों के साथ ऐसा बहुत कम होता है, लेकिन ऐसे तर्क देने के लिए पर्याप्त कारण नहीं है कि इसे अपराध के रूप में वर्गीकृत न किया जाए।
‘ट्रांसजेंडर्स में यौन हिंसा बड़ा मुद्दा’
अल्टरनेटिव लॉ फोरम के संस्थापक सदस्य और ‘लॉ लाइक लव: क्वीर पर्सपेक्टिव्स ऑन लॉ’ के सह-संपादक अरविंद नारायण कहते हैं, ‘अगर आप 377 के तहत केस लोड को देखें, तो हमने पाया कि बड़ी संख्या में गैर-सहमति से यौन संबंध के मामले हैं। यह निश्चित रूप से डराने-धमकाने और परेशान करने के तौर काम करता था। लेकिन बहुत अधिक दुर्व्यवहार गुप्त रूप से होते थे।’ नारायण बताते हैं कि ट्रांस समुदाय में यौन हिंसा एक बहुत बड़ा मुद्दा है। वे कहते हैं कि अगर आप इसे केवल 2019 के ट्रांस एक्ट के तहत देखें, जहां सजा बहुत कम है, तो यह इशारा करता है कि आप दो प्रकार के शरीरों को कैसे देखते हैं। एक उच्च अधिकारों के साथ और दूसरा कम अधिकारों के साथ। यह भेदभावपूर्ण है।
एक्सपर्ट्स ने क्या कहा
सेंटर फॉर जस्टिस, लॉ एंड सोसाइटी में लॉ एंड मार्जिनलाइजेशन क्लिनिक के सहायक निदेशक मुस्कान तिबरेवाला कहते हैं कि ट्रांस एक्ट 2019 में सजा न केवल कम है, बल्कि जमानती और गैर-संज्ञेय भी है। इसका मतलब है कि पुलिस को तुरंत प्राथमिकी दर्ज करने की आवश्यकता नहीं है। यहां तक कि अगर वे अपराधी को पकड़ भी लेते हैं, तो वे तुरंत पुलिस या मजिस्ट्रेट से जमानत ले सकते हैं। यह निश्चित रूप से पीड़ित लोगों की मुश्किलें बढ़ाने वाला जोखिम में डालने वाला है। एकमात्र संभावित अपवाद ट्रांस महिलाओं के मामले में है।
‘कोई सहारा न छोड़ना पीछे हटने जैसा’
तिबरेवाला कहती हैं, ‘अगर उनके पास एक पहचान पत्र है जिसमें कहा गया है कि वे एक महिला हैं, तो वे धारा 375 के तहत मामला दर्ज कराने में सक्षम हो सकती हैं।’ वह आगे कहती हैं कि यह पुलिस के विवेक पर निर्भर करेगा। नारायण का तर्क है कि जहां धारा 377 अपर्याप्त था और दुरुपयोग किया जा सकता था, वहीं अब कोई सहारा न छोड़ना पीछे हटने जैसा है। यही कारण है कि, वह कहते हैं, कई समलैंगिक ग्रुप्स ने, मसौदा प्रक्रिया के दौरान, अनुरोध किया था कि रेप कानून को पीड़ित के संबंध में न्यूट्रल बनाया जाए।
समलैंगिक संबंधों को इजाजत?
लॉयर्स कलेक्टिव की डिप्टी डायरेक्टर और वकील तृप्ति टंडन का कहना है कि इन मामलों में कानूनी तंत्र का अभाव गलत संदेश देता है। ऐसा लगता है कि पुरुषों और समलैंगिक लोगों का यौन शोषण करना ठीक है। उन्होंने समलैंगिक पुरुषों के कई ऐसे मामले देखे हैं जो किसी डेटिंग ऐप पर मिलने के बाद हिंसक निकले या उनकी सहमति के बिना उन्हें फिल्माया और ब्लैकमेल किया गया। वह कहती हैं कि जब धारा 377 मौजूद थी, तब भी शिकायत दर्ज कराना कठिन था। थाना कोई क्वीर-फ्रेंडली जगह नहीं है। तिबरेवाला ने नोट किया कि ऐसे मामले हैं जहां पुरुषों का यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट करने पर पुलिस थानों में मजाक उड़ाया जाता है। लेकिन अब, त्रुटिपूर्ण सहारा भी चला गया है।
BNS में कैसे हो सकता है बदलाव
धारा 377 केवल एक ही उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती थी। इसका इस्तेमाल महिलाओं द्वारा भी किया जाता था – खासकर वैवाहिक बलात्कार के मामलों में। तृप्ति टंडन कहती हैं, ‘धारा 375 के विपरीत, जिसमें स्पष्ट था कि विवाहित जोड़ों के बीच ऐसे मामलों में ये लागू नहीं होता। 377 में यह अपवाद नहीं था। इसलिए, महिलाएं इसका उपयोग करके प्राथमिकी दर्ज कराने में सक्षम थीं, हालांकि यह विशिष्ट अदालत और उनकी व्याख्या पर निर्भर करता था। अय्यर कहते हैं कि हमें एक नए कानून की भी जरूरत नहीं है, हमें बस इतना करना है कि बीएनएस में ‘महिला’ को ‘व्यक्ति’ में बदल दिया जाए। नारायण इसे सरलता से कहते हैं कि राज्य की यह ज़िम्मेदारी है कि वह लिंग पहचान और यौन अभिविन्यास के बावजूद सभी व्यक्तियों को यौन हिंसा से बचाए। यह एक संवैधानिक दायित्व है, और एक ऐसा दायित्व है जिसे पूरा नहीं किया गया है।