पॉलिटेक्निक कॉलेज में पढ़नेवाला एक लड़का मेरे साथ क्रिकेट और फुटबॉल खेला करता था। मैंने 30 से 45 साल की उम्र तक हर शाम अपने बच्चों, मोहल्ले के बच्चों और कॉलेज के लड़कों के साथ कुछ न कुछ खेलते हुए ही बिताई है। कभी क्रिकेट खेला तो कभी फुटबॉल, स्विमिंग, बैडमिंटन, टेबल टेनिस जैसे खेल। मौसम और ग्राउंड की उपलब्धता के मुताबिक हम अपने खेल बदलते रहे। उनमें ही पॉलिटेक्निक में पढ़ने वाला वह लड़का भी था, जिसने बाद में प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज से BE कोर्स भी पूरा कर लिया। करीब 6 साल बीतने पर भी उसके पास कोई रोजगार नहीं है। वह अलग-अलग प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता रहा, जहां अप्लाई करने वाले हजारों लोग थे और सीटें बहुत कम। एक बार वह बहुत दुखी होकर मुझसे मिलने आया था। मैं जो सीख दे सकता था, उसे दी।
यह कहानी भारत के कितने ही पढ़े-लिखे ग्रैजुएट युवाओं की है। ऐसे में सवाल उठता है कि तो फिर आज मैं उसकी बात क्यों कर रहा हूं? असल में पढ़ाई में बेहद औसत वह लड़का मुझे हर खेल में खास दिखा। जैसे किसी ने उसे हर खेल की टेक्निक कुदरती रूप से सिखाकर भेजा हो । हमें वह क्रिकेट, दौड़ने, एथलेटिक्स, फुर्ती आदि में पहले से ही गिफ्टेड लगता था। एक दिन वह मेरे घर आया। मैंने पहली बार उसके हाथ में टेबल टेनिस (TT) का रैकेट दिया और फिर उसके साथ कुछ देर तक खेला। TT जैसे स्किल बेस्ड खेल को भी वह बहुत जल्दी सीख रहा था। जिसे कुदरत ने खेल में अनूठी और अविश्वसनीय प्रतिभा दी, उसे हमारे पूरे सिस्टम (माता-पिता, स्कूल और उसके बाद की सामाजिक-आर्थिक सिक्योरिटी आदि) ने मिलकर वहां धकेल दिया जहां एक शानदार खिलाड़ी औसत से नीचे स्तर का इंजीनियर बन गया।
इस तरह टैलेंट बर्बाद होने की ढेरों कहानियां आपको हमारे देश के कस्बों या शहरों में मिल जाएंगी। जब लोग हमारे खिलाड़ियों के हारने पर उन्हें ट्रोल करते हैं, चाहे वह दीपिका कुमारी हो या लक्ष्य सेन तो यह समझने की जरूरत है कि यह हार किसी एक खिलाड़ी की नहीं, पूरे सिस्टम की है। जिसे दुरुस्त किए बगैर 140 करोड़ लोगों का हमारा देश छोटे-से देश फिजी से भी कम मेडल पाता रहेगा। आधुनिक स्कूलों को मैं टैलंट किलर कहता हूँ। मेरा एक बेटा पहले अटेम्प्ट में ही एम्स जैसे संस्थान का स्टूडेंट बना। दूसरा, अच्छे इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट का स्टूडेंट बनेगा लेकिन एक पिता के रूप में दिल से उन्हें खेल को प्रफेशन बनाते देखना चाहता था। उनके खिलाड़ी बनने पर मैं एम्स या IIT में जाने से कहीं ज्यादा खुश होता।
वे दोनों ही प्रतिभाशाली थे। मेरा कहना था कि पढ़ाई को बैकअप में रखो। अभी NEET या JEE के चक्कर में पड़े तो खेल छूट जाएगा। आखिरकार हुआ वही जो अक्सर हर भारतीय मिडल क्लास परिवार में होता है। लेकिन ऐसा हुआ तो क्यों हुआ ? असल में जब हमने जिला स्तर पर स्पोर्ट्स एकेडमी देखी तो समझ में आ गया कि इस फील्ड में बच्चों को झोंकना पूरी तरह जुआ है। वहां ज्यादातर कोच ऐसे थे जो नाकाम खिलाड़ी रहे थे, कुंठा, हताशा, मोटिवेशन की कमी लिए। साथ ही कोचिंग का कोई साइंटिफिक या ट्रेंड सिस्टम नहीं था। मैंने देखा कि एक स्विमिंग कोच बच्चों को हिप्स पर छड़ी मार रहा है। एक क्रिकेट कोच गंदी गालियां दे रहा है। किसी भी कोच को बच्चों के बेसिक न्यूट्रिशन, BMI, BMR, लेटेस्ट टेक्नीक आदि की न तो अपडेटिङ जानकारी थी और न ऐसी कोई इच्छा। एक अच्छे बैडमिटन कोच मिले, जिन्हें तकनीक की अच्छी जानकारी थी। वह मोटिवेटिड भी थे। इस वजह से सिर्फ 3 महीने में मेरा बड़ा बेटा बैडमिंटन में जबलपुर का अंडर 12 में दूसरा बेस्ट प्लेयर बन गया था। लेकिन खेल संघ के किसी बड़े अफसर से उनकी लड़ाई हो गई और उन्हें हटा दिया गया। यह वही पल था, जब मैं बेटे को गंभीरता से खेल में आगे बढ़ाने का फैसला ले रहा था।
वहीं, स्विमिंग में किसी कोच को तकनीक जैसे बेसिक ड्रैग, स्ट्रीमलाइन पोजिशन, प्रपल्शन की भी जानकारी नहीं थी और न ही सीखने की कोई इच्छा। तब मैंने निराश होकर खुद स्विमिंग के बारे में पढ़कर और विडियो देखकर 4 बच्चों को स्टेट लेवल जीतने तक ट्रेनिंग दी। उनमें से एक लड़की नेशनल तक अच्छा परफॉर्म करके आई। बाद में वह राज्य तैराकी अकादमी में ट्रेनिंग के लिए चली गई। आखिरकार उसने भी स्विमिंग छोड़ दी जबकि वह अच्छी तैराक थी। मुझे उन चारों बच्चों को कभी डांटना ही नहीं पड़ा। बच्चे प्रेरित करने से जल्दी सीखते हैं। न तो हमारे देश में स्कूलों से टैलंट चुनने का कोई तरीका है और न ही स्कूल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने वाले स्टूडेंट्स को आसानी से छुट्टी या मार्क्स देते हैं।
पैरंट्स को स्कूल प्रिंसिपल से मिन्नतें करनी पड़ती हैं। इसी सिस्टम से नाकाम हुए हताश पुराने खिलाड़ियों को कोच बना दिया जाता है, जिन्हें बच्चों को हैंडल करने की कोई साइंटिफिक ट्रेनिंग नहीं मिलती। एक स्विमिंग कोच झूठ बोलकर अपने 15 साल के लड़के को अंडर 12 में खिलाते थे। कोई अकाउंटेबिलिटी नहीं, फेवरेटिजम, करप्शन तो शुरुआती स्तर पर ही दिख जाता है। खिलाड़ी जब तक बड़े स्तर तक परफॉर्म न कर जाए, उसके जख्मी होने पर आर्थिक या जॉब सिक्योरिटी की कोई गारंटी नहीं, लेकिन चोट तो किसी भी स्तर पर लग सकती है। तीरंदाजी, कुश्ती, बॉक्सिंग जैसे खेलों में अमीर घरों के बच्चे भी आएं तो हम बेहतर परफॉर्म करेंगे। गरीब बच्चे हॉस्टल, खाना, फ्री एजुकेशन और बाद में सरकारी जॉब मिलने की उम्मीद में आते हैं। लेकिन वे बच्चे नहीं आते जो ट्रैवल ट्रेनिंग, उपकरणों का खर्च उठा सकते हैं।
असुरक्षित भविष्य के साथ ही कई कोचेज का पैरंट्स और बच्चों के साथ बदतमीजी वाला बर्ताव भी एक वजह है। ऐसा अच्छी आधिकारिक ट्रेनिंग न मिलने की वजह से होता है। किसी भी कोच के लिए अच्छा कम्युनिकेशन सीखना उतना ही अहम है जितना कि मुख्य खेल। यह बर्ताव बहुत से लोगों को कोई दूसरा सम्मानजनक ऑप्शन ढूंढने को बाध्य कर देता है। जिन देशों के बच्चे ओलिंपिक खेलों में मेडल जीत रहे हैं, वहां बच्चों को पीटने या बेइज्जत करने पर कोच जेल भेज दिए जाएंगे। लेकिन अपने यहां कोच को ट्रेनिंग और टीम की जीत पर अच्छे इंसेंटिव दिए जाने की भी जरूरत है। खेलों में अच्छा परफॉर्म करने वाले बच्चों के बैकअप प्लान के लिए पढ़ाई और अलग- अलग प्रफेशनल कोर्स में सीट बढ़ानी चाहिए।
जो बच्चे ओलिपिक स्तर तक पहुंच पाए हैं, मैं उन खिलाड़ियों का बहुत सम्मान करता हूं क्योंकि खेल एकेडमी और खेलों को करीब से देख चुका हूं। उनके माता-पिता ही समझ सकते हैं कि कितने त्याग, मेहनत और रिस्क के बाद, वे बहाव के खिलाफ तैरकर यहां तक पहुंचे हैं। चाहे वे जीतें या हारें, क्रिकेट स्टार्स के इस देश में उनका यह संघर्ष ही उन्हें सुपर हीरो बना देता है। देश में जिन टॉप एथलीट को आज आप हारते देख रहे हैं, हो सकता है कि उन्हें बचपन में साइंटिफिक ट्रेनिंग और न्यूट्रिशन मिलता तो वे बेहतर करते। उनकी फिजिकल हेल्थ, मसल्स की स्ट्रेंथ में बढ़ोतरी होती। उनका नर्वस सिस्टम बेहतर ट्रांसमिशन पैदा करता, जिसका कोई ज्ञान हमारे समाज, स्कूल, कोच में अब तक नहीं है। बच्चे के लिए खेल चुनते वक्त जेनेटिक कायाकल्प का ध्यान रखना भी अहम स्ट्रेटजी है। भारतीय जीन ताकत पर आधारित खेलों की तुलना में स्किल बेस्ड खेलों में बेहतर साबित होंगे। साथ ही व्यक्ति आधारित न होकर सिस्टम आधारित व्यवस्था हो तो देश आने वाले 10 बरसों में आज से कई गुना बेहतर विजेता बना सकता है।