सावरकर असल में भारत के लिए कैसा संविधान चाहते थे, राहुल गांधी ने जो बोला क्या वो सच है?

नई दिल्ली

नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने लोकसभा में जब संविधान पर चर्चा की, उनकी तरफ से प्रमुखता से वीर सावरकर का जिक्र किया गया। उन्होंने दो टूक कहा कि सावरकर ने अपने लेखन में स्पष्ट रूप से बोला है कि हमारे संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है, संविधान में कुछ भी नहीं है, मनु स्मृति कानून है। अब कहने को उन्होंने सावरकर को लेकर सिर्फ इतना बोला, लेकिन बहस छिड़ गई कि वीर सावरकर संविधान को लेकर क्या विचार रखते थे। अब इसका जवाब जानने के लिए हमने एक किताब का सहारा लिया- अर्घ्य सेनगुप्ता की ‘The Colonial Constitution’ ।

सावरकर चाहते थे समान अधिकार
उस किताब में बताया गया है कि सावरकर तो सभी के लिए समान अधिकार की बात करते थे। वे तो कहते थे जो भी हिंदुस्तान की विचारधारा से सहमत है, उसे इस देश में हर अधिकार मिलने का हक भी है। बड़ी बात यह रही कि पहले जब-जब सावरकर हिंदुत्व का जिक्र करते थे, कहा जाता था कि मुस्लिम और ईसाई को भारत का नागरिक नहीं माना जा सकता, उनका तर्क रहता था कि क्योंकि मुस्लिम और ईसाई की जन्मभूमि भारत से अलग है, ऐसे में उन्हें नागरिक नहीं माना जा सकता।

मुस्लिमों को भी साथ रखने को तैयार थे सावरकर
लेकिन इसे राजनीतिक मजबूरियां कहा जाए या खुद को स्वीकृति दिलवाने की एक पहल, सावरकर का जो संविधान था, वो समान अधिकारों की बात करता था। असल में सावरकर चाहते थे कि हिंदू महासभा एक मेनस्ट्रीम राजनीतिक पार्टी बन जाए, उसकी स्वीकृति हर तरफ होने लगे। इसी वजह से कांग्रेस को टक्कर देने के लिए विचारधारा में यह बड़ा बदलाव देखने को मिला था।

गैर हिंदुओं को सावरकर ने किया था आश्वस्त
लोग यह जान हैरान हो जाएंगे कि गैर हिंदू लोगों को आश्वास्त करने के लिए सावरकर ने अपने संविधान में जोर देकर बोला था कि कोई किसी भी धर्म का क्यों ना हो, उसकी कोई भी जाति क्यों ना रहे, उसे समान अधिकार मिलेंगे। यहां तक बोला गया था कि अल्पसंख्यक चाहे तो अपने बच्चों के लिए अलग स्कूल बना सकते हैं, सरकार का उन्हें पूरा समर्थन मिलेगा। यानी कि जिसकी जो पहचान थी, वो उसके साथ पूरी आजादी के साथ हिंदुस्तान में रह सकता था।

ना भारत ना इंडिया, हिंदुस्तान चाहते थे सावरकर
वैसे एक बहस इस देश में और चलती है- भारत बनाम इंडिया। हाल ही में ऐसी खबर चल पड़ी थी कि मोदी सरकार देश का नाम भारत करना चाहती है। लेकिन वीर सावरकर की बात करें तो उनके संविधान में तो ना भारत को सही माना गया था और ना ही इंडिया को। सावरकर के लिए तो इंडिया शब्द पूरी तरह बेमतलब था, वे मानते थे कि इतिहास में ऐसा कुछ नहीं हुआ जो भारत का नाम इंडिया रखा जाए। एक नाम भारतवर्ष जरूर चर्चा में आया था, लेकिन वहां भी क्योंकि सिंधू और हिंदू को पूरा सम्मान नहीं मिल पा रहा था, आम सहमति यह बनी कि देश का नाम हिंदुस्तान फ्री स्टेट रखना चाहिए। असल में सावरकर के मन में यह नाम भी आयरलैंड के उदाहरण से आया था। असल में जब आयरलैंड अंग्रेजों के चंगुल से छूटा था, उसने खुद को फ्री स्टेट घोषित किया था। इसी वजह से सावरकर चाहते थे कि अंग्रेजों से मुक्ति के बाद मुल्क को भी हिंदुस्तान फ्री स्टेट कहा जाए।

सावरकर संविधान के 3 सिद्धांत
अब एक तरफ सावरकर का संविधान समान अधिकारों की बात कर रहा हूं, दूसरी तरफ उसी संविधान में देश की जनता को कई ताकतें दी गई थीं, ऐसी ताकतें जो अगर आज लागू हो जाएं तो खेल पूरी तरह पलट सकता है। असल में सावरकर जिस संविधान से प्रेरित थे, वहां तीन अहम पहलू थे। पहला तो रहा Initiative जिसके जरिए किसी भी कानून को देश के नागिरक भी संशोधित कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले एक छोटी आबादी को बदलाव वाला प्रस्ताव लाना होगा, फिर पूरी एडल्ट पॉपुलेशन उसको लेकर अपना वोट करेगी।

अंबेडकर को क्यों नहीं आया सावरकर प्लान रास?
इसी कड़ी में दूसरा सिद्धांत था Referendum। अगर कोई कानून किसी को रास नहीं आया तो उसके खिलाफ रीफ्रेंडम लाया जा सकता है। सावरकर का तीसरा सिद्धांत Recall कहता था कि अगर कोई देश का नागरिक अपने सांसद या विधायक को पसंद नहीं करेगा तो पांच साल से पहले भी उसका कार्यकाल खत्म हो पाएगा। एक निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं का दसवां हिस्सा अगर अपने नेता के खिलाफ प्रस्ताव लाता और ज्यादातर लोगों का उसे समर्थन मिल जाता, तब समय से पहले ही कार्यकाल समाप्त हो सकता था।

अब जानकार मानते हैं कि सावरकर के सिद्धांत और विचार ज्यादा कट्टर थे, संविधान के निर्माता ऐसा देश नहीं चाहते थे जहां पर समाज का एक वर्ग ज्यादा ही ताकतवर बन जाए। इसी वजह से सावरकर नहीं अंबेडकर के संविधान के साथ देश आगे चला।

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