नीतीश कुमार की खामोशी बीजेपी को डराने वाली है, आंबेडकर के नाम पर कहीं फिर से पाला न बदल लें

नई दिल्ली,

नीतीश कुमार आम चुनाव के पहले एनडीए में लौटे थे. तभी से उनके मुंह से बार बार एक बात सुनने को जरूर मिलती थी, अब कहीं नहीं जाएंगे. चले गये थे. गलती हो गई थी – लेकिन अब लगता है नीतीश कुमार वैसी ही गलती दोहराकर अपनी गलती सुधारना चाहते हैं. नीतीश कुमार ने फिलहाल खामोशी अख्तियार कर ली है. माना जा रहा है कि ये खामोशी नीतीश कुमार ने अरविंद केजरीवाल की चिट्ठी मिलने के बाद अख्तियार की है, न कि अमित शाह के मुंह से अपने बारे में राय सुनकर.

नीतीश कुमार की खामोशी के पीछे उनके बारे में अमित शाह की राय है, लेकिन बहाना बना है आंबेडकर के बारे में अमित शाह का बयान, जिसे लेकर लगभग पूरा विपक्ष बीजेपी नेता पर टूट पड़ा है. प्रगति यात्रा पर निकले नीतीश कुमार के मन की बात भी सामने आ चुकी है, जो अमित शाह के बयान पर प्रतिक्रिया लगती है. असल में, अमित शाह से जब एक इंटरव्यू में बिहार में एनडीए की लीडरशिप के बारे में पूछा गया, तो कहा कि फैसला बीजेपी के संसदीय बोर्ड में होगा.

नीतीश कुमार मान कर चल रहे थे कि बिहार में एनडीए के नेतृत्व को लेकर फैसला तो हो ही चुका है, फिर संसदीय बोर्ड में फैसला लिया जाना तो बीजेपी का नया स्टैंड लगता है. अमित शाह का ये बयान महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले एकनाथ शिंदे को लेकर कही गई बात जैसा ही था. तब अमित शाह ने कहा था, अभी तो एकनाथ शिंदे ही मुख्यमंत्री हैं. चुनाव बाद वो नहीं बल्कि बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गये.

चुनाव नतीजे आने के बाद एकनाथ शिंदे के समर्थक महाराष्ट्र में भी बिहार फॉर्मूला लागू करने की मांग कर रहे थे, जिसमें कम सीटें आने के बावजूद बीजेपी ने नीतीश कुमार को 2020 में बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था. महाराष्ट्र में बीजेपी ने बिहार फॉर्मूला तो नहीं अपनाया, लेकिन अमित शाह के बयान से लग रहा है कि बीजेपी बिहार में महाराष्ट्र फॉर्मूला लागू करने का मन बना चुकी है.

अमित शाह के बयान पर नीतीश कुमार ने खामोशी अख्तियार कर रखी है, लेकिन उनकी प्रगति यात्रा का पोस्टर उनके मन की बात जरूर सुना रहा है, जिस पर लिखा है – ‘जब बात बिहार की हो, नाम सिर्फ नीतीश कुमार का हो’.

नीतीश की खामोशी का रहस्य समझना मुश्किल है
नीतीश कुमार की प्रगति यात्रा का स्लोगन बिल्कुल वैसा ही है, जैसा 2015 के विधानसभा चुनाव में था. वो नारा तब नीतीश कुमार के चुनाव कैंपेन की निगरानी कर रहे प्रशांत किशोर ने दिया था. जेडीयू का नया स्लोगन है, ‘जब बात बिहार की हो, नाम सिर्फ नीतीश कुमार का हो’ – और तब का नारा था, ‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार हैं.’एक बार फिर नीतीश कुमार ने एक ही तीर से सारे निशाने साध लिये हैं. एक ही स्लोगन में सभी के लिए मैसेज है. जेडीयू में इधर-उधर ताक-झांक कर रहे अपने नेताओं के लिए भी, बीजेपी नेता अमित शाह के लिए भी, और फिलहाल इंडिया ब्लॉक में लालू यादव और तेजस्वी यादव के लिए भी.

ऐसे में जबकि नीतीश कुमार खामोश हैं, अमित शाह के अंबेडकर पर दिए बयान का जेडीयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा समर्थन कर चुके हैं. वक्फ संशोधन बिल हो, या संविधान पर बहस, या मुस्लिम समुदाय के मुद्दे पर जेडीयू के पूर्व अध्यक्ष केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह की बातें तो बीजेपी नेताओं जैसी ही है. देखा जाये तो ललन सिंह एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इच्छा के मुताबिक ही चल रहे हैं. बीजेपी के सभी सहयोगी दलों के प्रवक्ताओं को एनडीए की ही भाषा बोलनी चाहिये – लेकिन मौजूदा हालात में ये नीतीश कुमार के मनमाफिक नहीं.

हो सकता है, नीतीश कुमार को आंबेडकर पर अमित शाह के बयान से वैसे ही आपत्ति नहीं होती जैसी जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म किये जाने से, या फिर जैसे राम मंदिर उद्घाटन समारोह को लेकर स्टैंड रहा. लेकिन बिहार में एनडीए के नेतृत्व को लेकर भला अमित शाह की राय कैसे बर्दाश्त हो.

केजरीवाल की चिट्ठी का कितना असर?
संसद में अमित शाह के आंबेडकर पर दिये गये बयान पर पूरा विपक्ष बवाल कर रहा है. अमित शाह के बयान को आंबेडकर का अपमान बताते हुए आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल ने नीतीश कुमार को पत्र लिखा है. वैसा ही पत्र केजरीवाल ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को भी लिखा है. अरविंद केजरीवाल की सलाह है कि नीतीश और नायडू को केंद्र की बीजेपी सरकार के सपोर्ट पर फिर से विचार करना चाहिये. टीडीपी और जेडीयू के सपोर्ट वापस लेने पर केंद्र की एनडीए सरकार के लिए मुश्किल हो सकती है. अरविंद केजरीवाल की चिट्ठी के बाद के घटनाक्रम में राजनीति महसूस की जा रही है. ये भी संयोग है कि उसी दौरान नीतीश कुमार की तबीयत बिगड़ गई, और बिहार के मुख्यमंत्री ने चुप्पी साथ ली. तबीयत खराब हो जाने के कारण नीतीश कुमार के सारे कार्यक्रम रद्द हो गये. नीतीश कुमार की ताजा चुप्पी से रहस्य गहराने लगा है. बताते हैं कि अपने बारे में और आंबेडकर के बारे में अमित शाह के दोनो बयानों से नीतीश कुमार काफी नाराज हैं.

नीतीश के नेतृत्व पर बीजेपी की ओर से कभी हां, कभी ना क्यों?
अमित शाह के बयान के बाद नीतीश कुमार की नाराजगी महसूस करते हुए बीजेपी का पूरा अमला डैमेज कंट्रोल में जुटा हुआ लग रहा है. अव्वल तो नीतीश कुमार के लिए महागठबंधन में वापसी भी बेहद मुश्किल है, और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी खतरा पैदा हो सकता है.

मुमकिन है, मुख्यमंत्री की कुर्सी के बदले में लालू यादव बदले हालात में प्रधानमंत्री पद ऑफर करें. लेकिन, इंडिया ब्लॉक में प्रधानमंत्री पद पर पहले से ही तकरार चल रही है. लालू यादव ने इंडिया ब्लॉक का नेतृत्व ममता बनर्जी को सौंपने की बात कह दी है.

राहुल गांधी तो कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के स्थाई भाव में दावेदार होते हैं. ममता बनर्जी भी फिर से रेस में शामिल हो गई हैं. ऐसे में नीतीश कुमार के लिए मुख्यमंत्री पद की तरह प्रधानमंत्री पद की संभावना भी कम बच रही है.

राजनीति में जब सीधा फायदा नहीं मिलता, तो नुकसान को भी फायदे की नजर से देखा जाता है. अगर नीतीश कुमार ऐसा सोचते हैं, तो जाहिर है ममता बनर्जी के मन में भी ये ख्याल आ सकता है. अगर बीजेपी में फायदा न मिलने की स्थिति में नीतीश कुमार झटका देते हैं, तो ममता बनर्जी उसी फॉर्मूले से बीजेपी के साथ जाकर नीतीश कुमार को भी झटका दे सकती हैं.

लेकिन, बीजेपी के लिए भी नीतीश कुमार के मुकाबले ममता बनर्जी से डील करना मुश्किल होगा, और इसीलिए बीजेपी नेतृत्व नहीं चाहेगा कि नीतीश कुमार साथ छोड़ें. क्योंकि, ममता बनर्जी के साथ आने से केंद्र में सरकार चलती रहेगी, लेकिन हार हाथ से निकल जाएगा.

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