नई दिल्ली
‘मुझे बनाने वाली ये हैं। मुझे अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बनाया है। मैं आपकी बात क्यों सुनूं…।’ अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने राज्यसभा में ये बातें कही थीं। उनके बगल में सोनिया गांधी बैठी हुई थीं। बाद में बीजेपी के सांसद राधा मोहन दास अग्रवाल ने सदन खरगे के इस बयान पर तंज भी कसा था। लेकिन, खरगे के शब्दों में अपने नेता के लिए वफादारी थी। सोनिया गांधी के प्रति कुछ ऐसी ही वफादारी मनमोहन सिंह में भी थी, जिनका गुरुवार को 92 साल की उम्र में निधन हो गया। आखिरकार, सोनिया गांधी की वजह से ही तो कांग्रेस के तमाम दिग्गजों को पछाड़कर सिंह प्रधानमंत्री बने थे। उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर: द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ में बताया है कि कैसे सिंह को पसंद नहीं था कि वह कभी भी सोनिया गांधी से ज्यादा लोकप्रिय दिखें।
पीएम रहते सोनिया गांधी के हिसाब से चले
बारू ने अपनी किताब में लिखा है कि मनमोहन सिंह के दौर में महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों पर संयुक्त सचिव पुलक चटर्जी की सलाह बहुत महत्वपूर्ण होती थी। चटर्जी को सोनिया गांधी के कहने पर ही मनमोहन सिंह पीएमओ में जगह मिली थी। वह राजीव गांधी के साथ भी काम कर चुके थे। उनकी सोनिया गांधी के साथ नियमित और तकरीबन हर रोज बैठकें होती थीं जिसमें कहा जाता है कि उन्हें दिन के प्रमुख नीतिगत मुद्दों पर जानकारी देते थे और महत्वपूर्ण फाइलों पर उनके निर्देश मांगते थे। चटर्जी प्रधानमंत्री और सोनिया के बीच नियमित संपर्क का एक महत्वपूर्ण बिंदु थे।
बारू ने किताब में जो कुछ बयां किया है, उससे साफ है कि मनमोहन सिंह महत्वपूर्ण नीतिगत मुद्दों पर चटर्जी के जरिए सोनिया गांधी की राय और मंजूरी हासिल करते थे। कैबिनेट में कौन होगा, कौन नहीं, इस पर भी मनमोहन की नहीं बल्कि सोनिया गांधी की चली। यूपीए 2 के दौरान वह नहीं चाहते थे कि डीएमके के ए. राजा फिर मंत्री बनें लेकिन वैसा नहीं हुआ।
कभी नहीं चाहते थे सोनिया गांधी से ज्यादा चर्चा उन्हें मिले
संजय बारू ने अपनी किताब में लिखा है कि मनमोहन सिंह कभी नहीं चाहते थे कि मीडिया में उन्हें सोनिया गांधी से ज्यादा चर्चा मिले या लोकप्रियता मिले। बारू लिखते हैं, ‘वह मीडिया और आम जनता में कभी भी सोनिया गांधी से ज्यादा लोकप्रियता नहीं चाहते थे। यूपीए 1 के दौरान प्रधानमंत्री के लो प्रोफाइल रहने को एक गुण माना गया लेकिन यूपीए 2 के दौरान इसकी आलोचनाएं हुईं…उनकी समस्या ये थी कि वह कभी भी मीडिया या आम जमता में सोनिया से ज्यादा लोकप्रिय होने की कोशिश नहीं करते थे। जब भी कोई टीवी चैनल या न्यूज मैगजीन कोई ऑपिनियन पोल करता था और उनकी लोकप्रियता को बढ़ती हुई दिखाता था तो उन्हें तब राहत मिलती थी जब देखते थे कि वह लोकप्रियता में सोनिया से नीचे हैं।’
2009 चुनाव में जीत का श्रेय पीएम को नहीं, ‘प्रथम परिवार’ को मिला
कांग्रेस में मनमोहन सिंह सरकार की उपलब्धियों का श्रेय गांधी परिवार को देने की होड़ मची रहती थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए गठबंधन की जीत का श्रेय भी गांधी परिवार को मिला जबकि अगर नतीजे उलट आए होते तो सारा ठीकरा प्रधानमंत्री के सिर पर फोड़ा जाता। बारू लिखते हैं, ‘जिस तरह से मैंने इसे देखा, अगर कांग्रेस हार जाती, तो हार का दोष पूरी तरह से पीएम के कंधों पर डाल दिया जाता। यह कहा जाता कि परमाणु समझौते के प्रति उनके जुनून के कारण पार्टी को वामपंथियों और मुसलमानों का समर्थन खोना पड़ा। उनकी ‘नव-उदारवादी’ आर्थिक नीतियों को गरीबों से अलग-थलग करने वाला माना जाता। तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से दोस्ती करने की उनकी कोशिश को हिंदू वोटों को अलग-थलग करने वाला माना जाता। पीएम पर हार का ठीकरा फोड़ने के लिए सौ स्पष्टीकरण दिए जाते। अब जब पार्टी सत्ता में वापस आ गई थी, और वह भी पार्टी में किसी के भी अनुमान से अधिक संख्या में, तो इसका श्रेय पार्टी के ‘प्रथम परिवार’ को जाएगा। वंशज और भावी नेता को। यह राहुल की जीत थी, मनमोहन की नहीं।’