दुनिया में अलग-थलग पड़ा रहता भारत, लेकिन मनमोहन सिंह ने बचा लिया, सरकार तक को लगा दिया था दांव पर

नई दिल्ली

डॉक्टर मनमोहन सिंह। आधुनिक भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखने वाले प्रख्यात अर्थशास्त्री। आरबीआई के पूर्व गवर्नर। पूर्व वित्त मंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री। दिल्ली के निगम बोध घाट पर शनिवार दोपहर को जब इस महान शख्सियत को आखिरी विदाई दी जा रही थी तब वहां कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के साथ-साथ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, रक्षा मंत्री समेत तमाम हस्तियां मौजूद थीं। पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार हुआ। गुरुवार को उनका 92 वर्ष की उम्र में निधन हुआ था। मनमोहन सिंह की शख्सियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वह देश के लिए अपनी सरकार तक को दांव पर लगाने से नहीं हिचके थे। परमाणु शक्ति संपन्न होने के बावजूद वैश्विक मंच पर भारत अलग-थलग पड़ा हुआ था लेकिन उन्होंने अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील करके देश को एक वैध न्यूक्लियर पावर के तौर पर स्थापित किया। देश को दशकों से चले आ रहे एनपीटी और अन्य पाबंदियों के बंधन से आजाद कराया।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 10 साल के कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि इंडो-यूएस न्यूक्लियर डील को माना जाता है। इस डील ने भारत को एक बहिष्कृत परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र से दुनिया के मंच पर एक वैध परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बना दिया। इससे दशकों से चले आ रहे NPT और अन्य तकनीकी प्रतिबंधों से मुक्ति मिली। सिंह ने इस डील के जरिये भारत और अमेरिका के रिश्तों को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया।

मनमोहन सिंह यूपीए-1 सरकार का नेतृत्व कर रहे थे। उनकी सरकार लेफ्ट दलों के बाहरी समर्थन पर टिकी हुई थी। लेफ्ट को अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं था। सरकार को चेतावनी दे दी कि समझौता हरगिज नहीं होना चाहिए, नहीं तो हम सरकार ही गिरा देंगे। लेफ्ट की चेतावनी और धमकियों को दरकिनार कर मनमोहन सिंह अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील पर आगे बढ़ गए। अपनी सरकार को ही दांव पर लगा दिया। लेफ्ट ने डील के विरोध में अपना समर्थन वापस ले लिया लेकिन सरकार बच गई क्योंकि उसने बहुमत का जुगाड़ कर लिया। तब समाजवादी पार्टी मनमोहन सरकार के लिए संकटमोचक साबित हुई।

अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील पर बातचीत वाजपेयी सरकार द्वारा 1998 में किए गए परमाणु परीक्षणों के बाद शुरू हुई थी। तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह और पूर्व NSA ब्रजेश मिश्रा ने सालों तक बातचीत की और भारत-अमेरिका संबंधों में एक सकारात्मक एजेंडा तलाशना शुरू किया।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, वाजपेयी की टीम ने NSSP (नेक्स्ट स्टेप्स इन स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप) प्रक्रिया के तहत एक क्रमिक दृष्टिकोण अपनाया था। उन्होंने भारत के लिए परमाणु व्यापार करने की छूट की बात शुरू की थी। रूस और फ्रांस का समर्थन हासिल किया था। लेकिन अमेरिका के साथ ज्यादा प्रगति नहीं हुई थी। जब मनमोहन सिंह ने पदभार संभाला, तो उन्होंने एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने का फैसला किया। मार्च 2005 में अमेरिका की तत्कालीन NSA कोंडोलीजा राइस के भारत दौरे के साथ इसकी शुरुआत हुई। उन्होंने बुश प्रशासन की पाकिस्तान को F16 बेचने की मंशा के बारे में भारत को जानकारी दी। लेकिन साथ ही यह भी कहा कि अमेरिका भारत के साथ असैन्य परमाणु सहयोग पर चर्चा करने को तैयार है।

तब मनमोहन सिंह ने इस दिशा में पूरी तरह से आगे बढ़ने और ऐसी प्रतिबद्धताओं के साथ एक रोडमैप बनाने का फैसला किया जो भारत को परमाणु अलगाव से बाहर निकाले। माना जाता है कि उन्होंने अपने अधिकारियों से कहा था कि अमेरिका के साथ व्यवहार में कोई आधी-अधूरी बात नहीं होनी चाहिए। और दूसरा, वह आश्वस्त थे कि जब तक भारत के परमाणु हथियारों के दर्जे का मुद्दा हल नहीं हो जाता, तब तक संबंधों की पूरी क्षमता हासिल नहीं हो सकती।

इसी पृष्ठभूमि में भारतीय वार्ताकारों ने अप्रैल और जुलाई 2005 के बीच अमेरिका के साथ बातचीत की। नतीजतन 18 जुलाई के संयुक्त बयान में दोनों पक्षों की व्यापक प्रतिबद्धताएं शामिल थीं। बुश प्रशासन कांग्रेस के साथ काम करने, कानूनों को समायोजित करने, अन्य देशों से भी ऐसा करने के लिए कहने और परमाणु व्यापार शुरू करने पर सहमत हुआ। भारत ने अपनी ओर से असैन्य और सैन्य रिएक्टरों की पहचान करने के लिए पृथक्करण योजना बनाने, असैन्य रिएक्टरों को IAEA की सुरक्षा के तहत रखने और परमाणु परीक्षण पर रोक जारी रखने पर सहमति व्यक्त की।

प्रशासक और राजनेता के रूप में सिंह चीजों को एक साथ रखने में कामयाब रहे। उनका अक्सर दोहराया जाने वाला मंत्र था- ‘लोकतंत्र में क्रांति नहीं हो सकती, केवल विकास हो सकता है।’ मनमोहन सिंह ने इतने दृढ़ इरादे से केवल एक ही दूसरा मुद्दा आगे बढ़ाया और वह था पाकिस्तान के साथ शांति। लेकिन 26/11 के हमलों के साथ यह शून्य हो गया। उन्होंने पिछले आतंकी हमलों के बावजूद पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था लेकिन हमारा पड़ोसी अपनी फितरत से कहां बाज आने वाला था। मुंबई आतंकी हमले के साथ भारत-पाकिस्तान के रिश्तों की गाड़ी बेपटरी हो गई जो अबतक बेपटरी ही है।

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