नई दिल्ली
दुनिया के पॉपुलर गेम में से एक फुटबॉल किसे पसंद नहीं है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भी यह बेहद पसंद है। उन्होंने अपने देश को महान बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है। मगर, वह एक जगह मात खा रहे हैं। वह है फुटबॉल। दरअसल, चीन एथलेटिक्स में तो कमाल कर रहा है। ओलंपिक में भी उसने कई खेलों में शानदार प्रदर्शन किया, मगर उसकी एक कमजोर नस रह गई है, जिसकी टीस जब-तब उभरती रहती है। यह कमजोर नस है फुटबॉल। जानते हैं-चीन में फुटबॉल के लड़खड़ाने की कहानी।
जब वर्ल्ड कप क्वॉलीफाइंग मैच में 7 हारा ड्रैगन
सईतामा में चीन और जापान के बीच फुटबॉल मैच चल रहा था। जापान 6-0 से आगे निकल चुका था। जापानी मेसी के नाम से मशहूर ताकेफुसा कुबो और उनकी टीम के साथी काफी देर से चीन के खिलाड़ियों को मैदान में छका रहे थे। तभी कुबो ने सातवां गोल दागकर चीन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। चीन को वर्ल्ड कप क्वालिफाइंग मैच में सबसे बदतर हार मिली। इससे पहले भी चीन को ओमान, उज्बेकिस्तान और हांगकांग से शर्मनाक हार मिली थी। अब चीन ऑस्ट्रेलिया से भी 2-0 से हार गया।
फुटबॉल का सपना 10 साल में सपना ही रहा
जब से शी जिनपिंग सत्ता में आए हैं, वह चीन को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनाने में लगे हुए हैं। इसमें वह बहुत हद तक कामयाब भी रहे हैं। मगर, फुटबॉल उन्हें दुख दे जाता है। दरअसल, चीन दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है। उसकी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। वहां की कम्युनिस्ट पार्टी भी बहुत मजबूत है। खुद फुटबॉल के जबरा फैन जिनपिंग ने यह सपना पाल लिया कि वह चीन को फुटबॉल की दुनिया में यूरोप और दक्षिणी अमेरिकी देशों का वर्चस्व तोड़ेंगे। मगर, एक दशक बाद भी उनका सपना सपना ही रह गया।
जिनपिंग की तीन इच्छाएं क्या हैं, जो अब तक रहीं अधूरी
2012 में शी जिनपिंग सत्ता में आए तो फुटबॉल के प्रति उनके प्यार ने चीन में फुटबॉल को सुधारने और बेहतर बनाने की एक मुहिम शुरू कर दी। उन्होंने एक बार कहा था कि उनकी मरने से पहले तीन इच्छाएं हैं कि चीन वर्ल्ड कप के लिए क्वालिफाई करे, वर्ल्ड कप की मेजबानी करे और आखिरकार वर्ल्ड कप जीते। मगर, ये इच्छाएं अधूरी ही नजर आ रही हैं।
क्या कम्युनिस्ट पार्टी को फुटबॉल प्यारा नहीं
चीन में कहा जाता है कि फुटबॉल कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण में पनप नहीं पाया। इसका जवाब हमें 2015 की एक महत्वपूर्ण सरकारी रिपोर्ट में मिल जाता है। जिसमें कहा गया है कि चीनी फुटबॉल एसोसिएशन (CFA) के पास कानूनी स्वायत्तता होनी चाहिए और यह खेल के सामान्य प्रशासन (GAS) से स्वतंत्र होना चाहिए। शी जिनपिंग ने भी माना कि अगर चीन सफल होना चाहता है, तो पार्टी को वह करना होगा जो वह शायद ही कभी करती है। यानी लीक से हटकर कुछ करना।
चीनी नेताओं के कदमों में फुटबॉल, तभी घूमते हैं
लेखक रोवन सिमंस की किताब ‘बैंबू गोलपोस्ट्स: वन मैन क्वेस्ट टू टीच द पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना टू लव फुटबॉल’ में कहा गया है कि चीन की एक पार्टी वाली सरकार ऊपर से फैसले थोपती है। यह आर्थिक विकास के लिए तो प्रभावी है, लेकिन प्रतिस्पर्धी टीम खेलों में इसके नतीजे खराब होते हैं। फीफा भी सरकार के दखल पर पाबंदीह लगाता है। मगर, चीन में फुटबॉल बिना नेताओं के आदेश के इधर-उधर घूम भी नहीं सकता है।
बड़े देश में फुटबॉल खेलने वाले बहुत कम
चीन सरकार के आंकड़े बताते हैं कि इंग्लैंड में 13 लाख रजिस्टर्ड खिलाड़ी हैं, जबकि चीन में 100,000 से कम फुटबॉलर ही हैं। जबकि चीन की आबादी इंग्लैंड की तुलना में 20 गुना अधिक है। यूरोप और दक्षिण अमेरिका में शीर्ष स्तर का फुटबॉल हर शहर और गांव में सड़कों और पार्कों से पैदा होता है। मगर, चीन में इसकी शुरुआत बीजिंग से हुई। 1990 के दशक तक सरकार ने देश की पहली पेशेवर लीग की स्थापना नहीं की थी। इसने प्रमुख शहरों में कुछ शीर्ष क्लब बनाए, मगर लेकिन जमीनी स्तर पर इसकी उपेक्षा की।
फुटबॉल में निवेश को नहीं मिला बढ़ावा
महामारी और उसके बाद चीन में आर्थिक मंदी के बाद से 40 से अधिक पेशेवर क्लब बंद हो गए, क्योंकि सरकार समर्थित कंपनियों ने अपने निवेश को वापस लेना शुरू कर दिया। निजी कंपनियों ने भी इस मामले में अपने हाथ पीछे खींच लिए। 2015 में सनिंग एप्लायंस ग्रुप ने यह कहते हुए फुटबॉल क्लब को बंद कर दिया कि वह अपने रिटेल कारोबार पर ध्यान देगी। इसह तरह चीन की सबसे सफल टीम एवरग्रांडे का भी पतन हो गया।
चीन के भ्रष्टाचार ने भी फुटबॉल को रसातल में पहुंचाया
चीन में भ्रष्टाचार भी चरम पर है। फुटबॉल में अधिकारियों ने भ्रष्टाचार किए। पिछले साल चीनी फुटबॉल में भ्रष्टाचार विरोधी गिरफ्तारियों की अभूतपूर्व बाढ़ सी आ गई थी। नौकरशाही और नेता इस भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। कई गिरफ्तारियां हुईं, मगर इसका असर नहीं पड़ रहा है।
भारत भी कभी फुटबॉल वर्ल्ड कप नहीं खेल पाया
भारत की नेशनल फुटबॉल टीम भी कभी विश्व कप नहीं खेल पाई। हालांकि, भारतीय टीम ने 1950 में क्वालीफाई किया था, मगर किन्हीं वजहों से वह मैच खेलने ब्राजील नहीं जा पाई। 1950 के बाद से भारत को टूर्नामेंट में कोई प्रविष्टि नहीं मिली है। भारतीय फुटबॉल टीम ने 1962 में जकार्ता में दक्षिण कोरिया के खिलाफ एशियाई खेलों में जीत हासिल की। इसकी वजह यह है कि भारत में क्रिकेट को सभी खेलों से ज्यादा तवज्जो मिली। फुटबॉल जैसे खेलों पर ध्यान नहीं दिया गया। साथ ही भ्रष्टाचार, लापरवाही जैसी भी वजहें जिम्मेदार रहीं।