सुप्रीम कोर्ट ने नौकरी से बाहर हो चुके सेना के एक जवान को विकलांगता पेंशन दिलवाई है. 1989 में बिजेंदर सिंह को दौरे पड़ने के चलते सेना से निकाल दिया गया था. उनका दावा था कि उन्हें बेहद कम तापमान और हवा के दबाव वाले सियाचिन में ड्यूटी के बाद यह समस्या शुरू हुई थी, लेकिन सेना के मेडिकल बोर्ड और आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने इसे नहीं माना था.
1985 में सेना में भर्ती हुए बिजेंदर सिंह मई 1988 से सितंबर 1988 के बीच सियाचिन में तैनात थे. 1989 में उन्हें दौरे पड़ने की बात सामने आई और उन्हें सेना की नौकरी के अयोग्य मान कर बाहर कर दिया गया. बिजेंदर को जो समस्या थी उसे मेडिकल भाषा में generalized tonic clonic seizure कहा जाता है.
जवान का कहना था कि सियाचिन में ड्यूटी के चलते यह समस्या हुई है. पहले वह बिल्कुल स्वस्थ थे, लेकिन सेना के मेडिकल बोर्ड ने इस समस्या का संबंध फौजी ड्यूटी से होने को नहीं माना. 1992, 1998 और 2002 में भी यह मामला अलग-अलग मेडिकल बोर्ड के पास गया. सबने यही निष्कर्ष दिया कि बिजेंदर की समस्या का सेना की सेवा से कोई लेना-देना नहीं है.
बिजेंदर ने आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल (AFT) में याचिका दाखिल की. AFT ने 2016 में याचिका खारिज कर दी. 2018 में बिजेंदर की पुनर्विचार याचिका भी AFT ने ठुकरा दी. अब सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की बेंच ने उन्हें न्याय दिया है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह स्थापित कानून है कि अगर नौकरी में आते समय मेडिकल जांच में कोई व्यक्ति फिट पाया जाता है, तो उसे मान्यता दी जाएगी. सेना में भर्ती से पहले याचिकाकर्ता की भी स्वास्थ्य जांच हुई थी और उसे सेना की नौकरी के लिए उपयुक्त पाया गया था. ऐसे में मेडिकल बोर्ड का निष्कर्ष सही नहीं लगता. इस निष्कर्ष को निर्विवाद रूप से साबित करने की जिम्मेदारी सेना की थी. ऐसा नहीं हुआ.
जजों ने कहा है कि AFT ने भी निष्पक्ष मूल्यांकन करने के बजाय मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट को मान्यता दे दी. यह सही नहीं कहा जा सकता. कोर्ट ने कहा है कि याचिकाकर्ता को जो समस्या हुई है, उसे 20 प्रतिशत से अधिक विकलांगता में माना जाए और उसके मुताबिक पेंशन में 50 प्रतिशत डिसएबिलिटी कम्पोनेंट जोड़ा जाए. यह भुगतान 1996 से लागू माना जाए. अभी तक की बकाया राशि 6 प्रतिशत ब्याज के साथ 3 महीने में पूर्व सैनिक को दी जाए.