ये सिर्फ शुरुआत है… 1.28 करोड़ की सैलरी से डिलीवरी बॉय बनने की आ गई नौबत, कैसे? इंजीनियर ने दी चेतावनी

नई दिल्‍ली

एक समय था जब शॉन के. को मेटावर्स इंजीनियर के तौर पर 1,50,000 डॉलर (लगभग 1.28 करोड़ रुपये) सालाना मिलते थे। अब वो एक टेम्‍परेरी मकान में रहते हैं। खाना डिलीवरी करके अपना गुजारा करते हैं। AI के तेजी से बढ़ने के बाद वो इसका शिकार बने हैं। 42 साल के शॉन के. के पास टेक में दो दशकों का अनुभव है। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वो न्यूयॉर्क के उत्तरी इलाके में ऐसे रहेंगे। eBay पर सामान बेचकर और खाना डिलीवरी करके अपना जीवन चलाएंगे। पिछले साल अप्रैल में नौकरी जाने के बाद शॉन खुद को तेजी से बदलती इंडस्ट्री के गलत साइड पर पा रहे हैं। जहां ChatGPT तेजी से बढ़ रहा है। वहीं, मेटावर्स जैसे क्षेत्र ठंडे पड़ रहे हैं।

Trulli

फॉर्च्यून की एक रिपोर्ट में शॉन ने कहा, ‘इस बार चुप्पी अस्थायी नहीं थी। यह ज्यादा परेशान करने वाली है।’ उन्होंने 800 आवेदन भेजे। लेकिन, उन्हें 10 से भी कम इंटरव्यू मिले। उनमें से कई इंटरव्यू AI एजेंटों के साथ थे, इंसानों के साथ नहीं। VR (वर्चुअल रियलिटी), AI और वेब डेवलपमेंट में अनुभव रखने वाले शॉन कभी तेजी से तरक्‍की कर रहे थे। लेकिन, जेनरेटिव AI के बढ़ने से सब कुछ बदल गया है। शॉन कहते हैं, ‘मैं AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) विरोधी नहीं हूं। मुझे इसकी क्षमता पर विश्वास है। लेकिन, इसका गलत इस्तेमाल हो रहा है। यह प्रतिभा को सशक्त बनाने के बजाय उसे रिप्‍लेस कर रहा है।’

इंजीन‍ियर ने दी चेतावनी
शॉन ने चेतावनी देते हुए कहा कि उनके साथ जो हुआ है, वो तो बस शुरुआत है। वो खुद को एक संकेत के रूप में देखते हैं। यह सिर्फ इस बात की झलक हैं कि कैसे कंपनियां लागत कम करने के लिए कर्मचारियों को रिप्‍लेस कर सकती हैं। इससे लाखों लोग प्रभावित हो सकते हैं। शॉन कहते हैं, ‘यह ज्‍यादा स्‍मार्ट मशीनों के बारे में नहीं है, बल्कि छोटी सोच के बारे में है। बिजनेस इनोवेशन को नहीं बढ़ा रहे हैं। वे महत्वाकांक्षा को कम कर रहे हैं।’

आज के तकनीकी युग का कड़वा सच
आंकड़े उनकी चिंता को दर्शाते हैं। ऑफिशियल इंटरव्यू कम हो रहे हैं, भर्ती प्रक्रियाएं ऑटोमेटेड हो रही हैं और रिज्यूमे को अक्सर किसी इंसान के पढ़ने से पहले ही फिल्टर कर दिया जाता है। शॉन की कहानी आज के तकनीकी युग का कड़वा सच है। AI के आने से नौकरियां जा रही हैं। लोगों को नए तरीके से जीवन यापन करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यह ट्रेंड सिर्फ किसी एक देश तक सीमित नहीं है। भारत भी इससे अछूता नहीं है।

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