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क्या मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से ज्‍यादा हो जाएगी? कुरैशी बोले, हजार साल तक नहीं होगा

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नई दिल्‍ली

भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की किताब ‘द पॉप्युलेशन मिथ, इस्लाम, फैमिली प्लानिंग एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया’ इस वक्त काफी चर्चा में है। अपनी किताब में उन्होंने फैमिली प्लानिंग से जुड़े कई अहम सवाल उठाए हैं। नाइश हसन ने उनसे बात की। पेश हैं मुख्य अंश :

कई लोग कहते हैं कि मुस्लिम बहुत बच्चे पैदा करते हैं। आप क्या कहेंगे?
यह सच है कि मुसलमानों की ग्रोथ रेट सबसे ज्यादा है। लेकिन दूसरा ट्रेंड यह है कि मुसलमान बहुत तेजी से फैमिली प्लानिंग की ओर बढ़ रहे हैं। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की पांचवीं रिपोर्ट में है कि 47 प्रतिशत मुसलमान फैमिली प्लानिंग करते हैं, 53 प्रतिशत अभी भी उससे बाहर हैं। दूसरी तरफ 42 प्रतिशत हिंदू भी फैमिली प्लानिंग नहीं करते- जो दूसरे नंबर पर हैं। देखा जाए तो दोनों ही समुदाय लगभग बराबर हैं। यह बात एक लंबे वक्त से फैलाई जा रही है कि हिंदू के दो, तो मुसलमान के 8 बच्चे होते हैं। इस भ्रम का शिकार हर हिंदुस्तानी की तरह मैं भी था 25 साल पहले तक। फिर मैंने एक पेपर लिखा तो पाया कि इन दोनों के बीच का गैप एक बच्चे से ज्यादा कभी भी नहीं था। यानी हिंदू के चार बच्चे हैं, तो मुसलमान के पांच। आज मुसलमानों की अनमेट नीड (वे फैमिली प्लानिंग करना तो चाहते हैं, पर उन तक सुविधा नहीं पहुंच पा रही) 12 प्रतिशत है। अगर सरकार हिंदू और मुसलमानों की अनमेट नीड पर मिशन मोड में काम करे तो बड़ा बदलाव आ सकता है।

यह भी अक्सर सुनने को मिलता है कि आने वाले समय में मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से ज्यादा हो जाएगी। क्या है इसकी सचाई?
इसके लिए मैंने डेटा का गणितीय मॉडल बनवाकर सचाई जानने की कोशिश की। इस काम को दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. दिनेश सिंह और प्रो. अजय कुमार ने किया और हमें बताया कि आने वाले एक हजार साल तक भी ऐसा नहीं हो सकता कि मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से ज्यादा हो जाए। इसके बाद तो जो भी वहम है, वह खत्म हो जाना चाहिए।

पिछले दिनों एक मुख्यमंत्री ने कहा कि एक वर्ग की जनसंख्या बढ़ने से अराजकता फैलने का खतरा रहता है। आप क्या कहेंगे इस बयान पर?
जिन बातों का जिक्र मैंने पहले किया, वे आम आदमी को न पता हों- यह मुमकिन है। लेकिन एक सूबे के मुख्यमंत्री को तो जरूर पता होती हैं। समझना चाहिए कि ऐसी बातों से गलत माहौल बनता है, जो किसी के लिए भी ठीक नहीं। आज के एनएफएचएस के मुताबिक जो गैप पहले 1.1 प्रतिशत था, वह आज 0.1 प्रतिशत रह गया है। यह लगभग बराबर हो चुका है। तो ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं रहता।

अपनी किताब ‘द पॉप्युलेशन मिथ, इस्लाम, फैमिली प्लानिंग एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया’ में आप कहते हैं कि इस्लाम फैमिली प्लानिंग की इजाजत देता है। लेकिन मुस्लिम समुदाय में बात करो तो लोग गुनाह या अल्लाह का डर बताकर इनकार करते हैं। इस पर आप क्या कहेंगे?

देखिए, इस्लाम में तो इसे हराम या गुनाह नहीं कहा गया है। कुरान की एक आयत में हराम चीजों के बारे में विस्तार से बताया गया है, उसमें फैमिली प्लानिंग तो है नहीं। अगर ऐसा होता तो उसका भी जिक्र जरूर होता। कुरान की बहुत सी आयतों का लोग अपने नजरिए से इंटरप्रटेशन कर देते है। एक आदमी पैगंबर के पास गया और कहा कि मेरे कई बच्चे हो गए, अब मैं बच्चा नहीं चाहता, मैं अज्ल (विदड्रॉल) करना चाहता हूं। लेकिन एक यहूदी कह रहा है कि यह हत्या है। इस पर पैगंबर ने कहा कि यहूदी गलत कह रहा है। इससे ज्यादा और क्या परमिशन चाहिए?

मौलवी और लीडर भी यह कहते पाए जाते हैं कि अल्लाह बच्चे देता है तो खाने का इंतजाम भी करता है। ऐसे बयान समुदाय को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसे कैसे रोका जा सकता है?
जिस संदर्भ में वे कह रहे हैं, वह सही नहीं है। इसका एक ऐतिहासिक संदर्भ है, उस जहालत के जमाने को लेकर, जिसमें अरब लोग जो बच्चियां पैदा होती थीं, उनको जिंदा दफन कर दिया करते थे। उस संबंध में पैगंबर ने कहा था कि इनको समझाओ कि गरीबी के कारण बेटियों को न मारें। जिसने पैदा किया है, वह इनके खाने का इंतजाम भी करेगा।

2022 के एनएफएचएस के मुताबिक लिंगानुपात 1000 पुरुषों पर 1020 महिलाएं हैं। यह पहली बार हुआ है। क्या कहेंगे आप?
देखिए, यह एनएफएचएस का सर्वे है, जो इतने बड़े देश में 2-3 लाख लोगों के बीच किया गया है। पता नहीं वे किन लोगों के पास पहुंचे। हो सकता है कि वहां ऐसा रहा हो। लेकिन हमें तो 2011 की जनगणना के आधार पर ही चलना होगा, जिसमें हर घर जाकर जानकारी ली जाती है। वही पुख्ता जानकारी है। उसके मुताबिक तो अभी 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएं ही हैं।

क्या भारत में ईवीएम को आप खतरा मानते हैं?
नहीं। इसका सबसे बड़ा सबूत है बंगाल का चुनाव, जहां बीजेपी काफी ताकत लगा चुकी थी। अगर ऐसा होता तो उन्हें हार का सामना नहीं करना पड़ता। मेरे हिसाब से तो ईवीएम सही है और भारत की चुनाव प्रक्रिया को पूरी दुनिया में सराहा जाता है।

वोटर आईडी और आधार को लिंक करने का आइडिया आप को कैसा लगता है?
मैं इसकी कोई जरूरत नहीं समझता। जब लोगों के पास आधार कार्ड है और उससे ही वोट दिया जा रहा है तो फिर उसे लिंक करने की क्या जरूरत?

एक देश-एक चुनाव पर क्या राय है आपकी?
मिसाल के तौर पर किसी एक सूबे में चुनाव होता है और किसी वजह से वहां स्थितियां खराब हो जाती हैं, सरकार नहीं चल पाती तो क्या उसकी वजह से बाकी सूबों का नुकसान किया जाए? यह बात चर्चा में लाई जा रही है तो लाने दीजिए यह। खुद-बखुद रिजेक्ट हो जाएगी।

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