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Friday, July 4, 2025
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महंगाई की मार : भीषण गर्मी ने बिगाड़ दिया खेल, रॉकेट हुए सब्‍जी-दाल के रेट, कब मिलेगी राहत?

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नई दिल्‍ली:

पिछले साल नवंबर से ही भारत में खाने-पीने की चीजों की महंगाई लगभग 8 फीसदी बनी हुई है। इसका मुख्य कारण मौसम की मार है। इससे फसलों को नुकसान पहुंचा है। हालांकि, इस बार मॉनसून जल्दी आ गया है और बारिश भी अच्छी होने की उम्मीद है। लेकिन, अभी कीमतों में जल्द राहत मिलने की कोई संभावना नहीं दिख रही है। खाने-पीने की चीजों की बढ़ती कीमतें चिंता का विषय बनी हुई हैं। ये हमारे कुल खर्च का लगभग आधा हिस्सा होती हैं। इससे महंगाई दर भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के 4 फीसदी के लक्ष्य से ऊपर बनी हुई है। इसके कारण ब्याज दरों में कटौती संभव नहीं हो पा रही है।

क्‍यों बढ़ रहे खाने-पीने की चीजों के दाम?
खाने-पीने की चीजों की महंगाई के पीछे कई कारण हैं। इनमें मुख्य रूप से मौसम की मार, सप्लाई चेन में बाधा और बोआई में देरी शामिल हैं। पिछले साल सूखे और इस साल पड़ रही भीषण गर्मी ने दालों, सब्जियों और अनाज जैसी महत्वपूर्ण खाद्य वस्तुओं की सप्लाई को प्रभावित किया है। देश के लगभग आधे हिस्से में तापमान सामान्य से 4-9 डिग्री सेल्सियस अधिक रहने से कटी और स्‍टोर सब्जियां खराब हो गई हैं। प्याज, टमाटर, बैंगन और पालक जैसी फसलों की बुवाई में देरी हुई है।

मॉनसून से क्‍यों नहीं मदद?
किसान आमतौर पर जून-सितंबर के मॉनसून से पहले ही सब्जियों को तैयार कर लेते हैं। लेकिन, इस साल अत्यधिक गर्मी और पानी की कमी के कारण न तो पौधे तैयार हो पाए हैं और न ही उनकी रोपाई हो पाई है। इससे सब्जियों की कमी और बढ़ गई है। हालांकि, इस बार मॉनसून जल्दी आ गया था और तेजी से पूरे देश में फैल गया था, लेकिन यह रफ्तार जल्द ही धीमी पड़ गई। इस वजह से इस सीजन में अब तक 18% कम बारिश हुई है। कमजोर मॉनसून के कारण गर्मी में बोई जाने वाली फसलों की बुवाई में देरी हुई है। इन फसलों को अच्छी बारिश की जरूरत होती है। जून में बारिश अच्छी नहीं हुई है, लेकिन मौसम विभाग ने बाकी मॉनसून सीजन में सामान्य से अधिक बारिश होने का अनुमान जताया है। इससे फसल उत्पादन अच्छा होने की उम्मीद है।

अगर मगर में लटकी कीमतें
अगर मॉनसून फिर तेज होता है और समय पर पूरे देश में बारिश होती है तो अगस्त से सब्जियों की कीमतों में गिरावट आने की उम्मीद है। हालांकि, जुलाई और अगस्त में बाढ़ आती है या सूखा पड़ता है तो क्रॉप साइकिल प्रभावित हो सकता है। दूध, अनाज और दालों की कीमतों में जल्द ही गिरावट की संभावना नहीं है। इनकी सप्लाई कम है। गेहूं का भंडार भी कम होता जा रहा है। सरकार की अनाज आयात करने की कोई योजना नहीं है। ऐसे में गेहूं की कीमतों में और तेजी आने की आशंका है। चावल की कीमतें भी बढ़ सकती हैं। कारण है कि सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 5.4% बढ़ा दिया है।

सरकार क्‍या कदम उठा सकती है?
सरकार खाद्य पदार्थों की कीमतों को कम करने के लिए कुछ कदम उठा सकती है। मसलन, निर्यात पर प्रतिबंध और आयात को आसान बनाया जा सकता है। हालांकि, सरकार सब्जियों की कीमतों के मामले में ज्यादा कुछ नहीं कर सकती। कारण है कि ये जल्दी खराब होने वाली चीजें हैं। इन्हें आयात करना भी मुश्किल होता है। चीनी, चावल, प्याज और गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध जैसे उपाय किए गए हैं, लेकिन ये किसानों के बीच लोकप्रिय साबित नहीं हुए हैं। केंद्र सरकार आक्रामक उपाय करने के बजाय कुछ फसलों की कीमतों को बढ़ने दे सकती है।

खाद्य पदार्थों की कीमतें चिंता का विषय क्‍यों?
खुदरा महंगाई में नरमी के बावजूद खाद्य पदार्थों की कीमतें अभी भी चिंता का विषय हैं। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) पर आधारित खुदरा महंगाई धीरे-धीरे कम हो रही है। यह मई 2024 में 12 महीनों के निचले स्तर 4.8% पर पहुंच गई। हालांकि, खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार बने रहने वाले दबाव खासकर सब्जियों और दालों में तेजी के कारण इस सकारात्मक रुझान के उलट जाने की आशंका है। कुल मिलाकर खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 7.9 फीसदी पर स्थिर बनी हुई है। केंद्रीय बैंक ने लगातार खाद्य पदार्थों की अस्थिर कीमतों को लेकर चेतावनी दी है, जो हाल ही में पड़ी भीषण गर्मी जैसे मौसम संबंधी झटकों से काफी प्रभावित होती हैं। इन उतार-चढ़ावों के कारण खाद्य पदार्थों की महंगाई दर बढ़ी हुई है। इससे भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के लिए महंगाई दर को अपने 4% के लक्ष्य पर बनाए रखना मुश्किल हो गया है।

मॉनेटरी पॉलिसी पर दिखेगा असर
खाने-पीने की चीजों की कीमतों में लगातार बने रहने वाले दबाव के कारण RBI ने अपनी नीतिगत दर को 6.5 फीसदी पर बनाए रखा है। ब्याज दरों में कटौती की संभावनाएं अभी ठंडे बस्ते में हैं क्योंकि RBI मौसम की स्थिति के बीच महंगाई के दबाव का मूल्यांकन कर रहा है। इन चुनौतियों के बावजूद 2024-25 की पहली तिमाही में भारत की वास्तविक GDP ग्रोथ काफी हद तक बनी हुई है। इसमें वैश्विक आर्थिक बढ़ोतरी के कारण दुनिया भर के कई केंद्रीय बैंक कम प्रतिबंधात्मक मौद्रिक नीति अपना रहे हैं।

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