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Monday, August 4, 2025
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यूरोप की तरह BRICS में एक करेंसी! रूस की चाहत को चीन जैसे हाथी का साथ, पर क्‍यों पसोपेश में भारत?

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नई दिल्‍ली

BRICS में भारत दोराहे पर खड़ा है। उसे दो परस्पर विरोधी फैसलों के बीच चुनाव करना है। भारत को तय करना है कि उसे ब्रिक्स करेंसी के कॉन्‍सेप्‍ट को अपनाना है या इस विचार को लेकर अपना रुख ठंडा रखना है? BRICS उभरती अर्थव्यवस्थाओं का गठबंधन है। इसकी नींव 2006 में ब्राजील, रूस, भारत और चीन ने यूरोप और अमेरिका जैसी महाशक्तियों के प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिए डाली थी। बाद में दक्षिण अफ्रीका भी इस गुट में शामिल हो गया था। अब सऊदी अरब, ईरान, मिस्र, इथियोपिया और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के शामिल होने के साथ ब्रिक्स का और विस्तार हुआ है। हालांकि, ब्रिक्स सिर्फ व्यापार संबंधों को बेहतर बनाने तक सीमित नहीं रहना चाहता है। खासतौर से रूस यूरो और डॉलर की तर्ज पर एक ग्‍लोबल करेंसी की वकालत कर रहा है। रूस का यह प्रस्ताव उन आर्थिक बंदिशों का नतीजा है, जिनका सामना उसने यूक्रेन के साथ युद्ध में किया है। इन प्रतिबंधों ने रूस की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया। इससे रूस को वैकल्पिक रास्‍ते तलाशने पड़े।

उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए कॉमन करेंसी के पीछे का विचार अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती देना है। 1944 से इसने दुनियाभर में रिजर्व करेंसी के तौर पर अपना दबदबा कामय करके रखा है। दुनिया में करीब 80% व्‍यापार अमेर‍िकी मुद्रा डॉलर में होता है। 60 फीसदी ग्‍लोबल रिजर्व डॉलर में है। इसके कारण अमेरिका को करीब-करीब हर चीज पर कंट्रोल करने का अधिकार मिल जाता है। कॉमन ब्रिक्स करेंसी बनाकर उभरती अर्थव्यवस्थाएं ज्‍यादा संतुलित और न्यायसंगत ग्‍लोबल फाइनेंशियल सिस्‍टम बनाने की मंशा रखती हैं।

क्‍यों स्‍थानीय करेंसी का इस्‍तेमाल मुश्‍क‍िल?
यहां तक तो बात समझ आती है। लेकिन, सवाल यह उठता है कि ब्रिक्‍स के देश अपनी-अपनी स्थानीय करेंसी का इस्‍तेमाल करके व्यापार क्यों नहीं कर सकते। इसे समझने के लिए रूस और भारत का उदाहरण लेते हैं। यूक्रेन युद्ध के कारण जब रूस पर प्रतिबंध लगे तो उसने भारतीय रुपये में लेनदेन के साथ रियायती मूल्य पर भारत को तेल बेचना शुरू कर दिया। हालांकि, यह व्यवस्था रूस के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हुई। कारण है कि उसके पास जो रुपया पहुंचा, उसका इस्‍तेमाल करने के लिए रास्ते खोजने में उसे कठिनाई हुई। अन्य देशों के साथ व्यापार के लिए सीमित गुंजाइश ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए स्थानीय करेंसी के इस्‍तेमाल की सीमाओं को दिखाया।

इन परिस्थितियों को देखते हुए कॉमन ब्रिक्स करेंसी भारत के लिए ठीक हो सकती है। इसके संभावित फायदों को देखते हुए सरकार इस संभावना पर चर्चा करने के लिए तैयार भी दिख रही है। हालांकि, इस मामले में चीन की भूमिका को लेकर चिंताएं हैं। चीन कई साल से अमेरिकी डॉलर के वैश्विक प्रभाव को सक्रिय रूप से चुनौती देता रहा है। ब्रिक्स के न्यू डेवलपमेंट बैंक जैसी संस्थाओं की स्थापना इसकी बानगी है।

चीन के ल‍िए फायदेमंद होगी व्‍यवस्‍था
जबकि कुछ एक्‍सपर्ट्स का तर्क है कि कॉमन करेंसी चीन के लिए फायदेमंद होगी। दूसरे संभावित जोखिमों को लेकर सावधान करते हैं। यूरोजोन का अनुभव दिखाता है कि अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं में सिंगल करेंसी का प्रबंधन जटिलताओं को जन्म दे सकता है। 2008 में ग्‍लोबल वित्तीय संकट के दौरान ग्रीस और पुर्तगाल जैसे देशों को भारी आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। कारण है कि उनकी खास जरूरतों को पूरा करने के लिए डिजाइन की गई मौद्रिक नीतियां जर्मनी जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के हितों से टकरा गई थीं।

यही वो बातें हैं जो कॉमन ब्रिक्स करेंसी की राह में अनिश्चितता पैदा करती हैं। चीन का तो वैसे भी बिल्‍कुल भरोसा नहीं किया जा सकता है। इस विचार को अमलीजामा पहनाने के लिए ब्रिक्‍स सेंट्रल बैंक की जरूरत होगी। तमाम अर्थशास्त्रियों को लगता है कि यह विचार बेहद पेचीदा है। इस दिशा में कदम बढ़ा पाना तकरीबन नामुमकिन है। इसमें सबसे बड़ा फायदा चीन और रूस को होना है। पश्चिमी देशों की ये दोनों देश वैसे भी आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। यही वजह है कि दोनों पुरजोर के साथ इसकी वकालत करने में लगे हैं।

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