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यूपी-बिहार में हर 10 में से 3 लोग ‘बेहद गरीब’, दिन के 32 रुपये भी खर्च नहीं कर पाते

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नई दिल्ली,

जब भारत आजाद हुआ था, तब यहां की करीब 80 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी. आजादी के 75 साल बाद गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाली आबादी घटकर 22 फीसदी पर आ गई है. लेकिन, अगर इसे नंबर में देखा जाए तो कोई खास फर्क नहीं आया है. आजादी के समय 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे थे, अब भी 26.9 करोड़ लोग गरीब हैं.

ये आंकड़ा सरकार ने लोकसभा में दिया है. लोकसभा में गरीबी रेखा से जुड़े सवाल पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने जवाब देते हुए बताया कि देश की 21.9% आबादी गरीबी रेखा से नीचे है. ये आंकड़े 2011-12 के हैं. क्योंकि, उसके बाद से गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या का हिसाब नहीं लगाया गया है.

सरकार ने गरीबी रेखा की परिभाषा भी बताई है. इसके मुताबिक, गांवों में अगर कोई हर महीने 816 रुपये और शहर में 1000 रुपये खर्च कर रहा है, तो वो गरीबी रेखा से नीचे नहीं आएगा. देश में अभी भी करीब 22 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, यानी 100 में से 22 लोग ऐसे हैं जो महीने के हजार रुपये भी खर्च नहीं कर पाते हैं.

आंकड़ों के मुताबिक, गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाली सबसे ज्यादा आबादी छत्तीसगढ़ की है. यहां करीब 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है. झारखंड, मणिपुर, अरुणाचल, बिहार, ओडिशा, असम, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं, जहां की 30% या उससे ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीती है. यानी, इन राज्यों में हर 10 में से 3 लोग गरीबी रेखा से नीचे आते हैं.

कब से रखा जा रहा गरीबी का हिसाब-किताब?
एक अनुमान के मुताबिक, आजादी के वक्त देश में 25 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे थे, जो उस वक्त की आबादी का 80% होता है. हमारे देश में 1956 के बाद से गरीबों की संख्या का हिसाब-किताब रखा जाने लगा है. बीएस मिन्हास आयोग ने योजना आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इसमें अनुमान लगाया गया था कि 1956-57 में देश के 21.5 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे थे.

इसके बाद 1973-74 में 55 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती थी. 1983 में ये आंकड़ा घटकर 45 फीसदी से कम हो गया. 1999-2000 में अनुमान लगाया गया कि देश की 26 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है.

आखिरी बार 2011-12 में गरीबों की संख्या और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों का आंकड़ा आया था. यही आंकड़ा सरकार ने लोकसभा में दिया है. ये आंकड़ा तेंदुलकर कमेटी के फॉर्मूले से निकाला गया था. इसके मुताबिक, अगर गांव में रहने वाला कोई व्यक्ति हर दिन 26 रुपये और शहरी व्यक्ति 32 रुपये खर्च कर रहा है, तो वो गरीबी रेखा से नीचे नहीं आएगा. यानी, गांव में रहने वाला व्यक्ति हर महीने 816 रुपये और शहरी व्यक्ति 1000 रुपये खर्च कर रहा है, तो उसे गरीब नहीं माना जाएगा.

सरकार की इस रिपोर्ट पर जमकर बवाल भी हुआ था. इसके बाद सरकार ने रंगराजन कमेटी बनाई थी. इस कमेटी ने सुझाव दिया था कि अगर गांव में रहने वाला व्यक्ति हर महीने 972 रुपये और शहर में रहने वाला 1,407 रुपये खर्च कर रहा है, तो उसे गरीबी रेखा से ऊपर रखा जाए. हालांकि, सरकार ने अभी तक इसे मंजूर नहीं किया है.

नेपाल-बांग्लादेश की 25% तक आबादी गरीब
1947 में बंटवारे के बाद भारत से अलग होकर पाकिस्तान बना और 1971 की जंग के बाद पाकिस्तान से ही अलग होकर बांग्लादेश बना. आज तीनों ही देशों की 20% से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करती है.वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, पाकिस्तान की 22% और बांग्लादेश की 24% आबादी गरीबी रेखा से नीचे है. वहीं, नेपाल की लगभग 25% आबादी गरीबी रेखा से नीचे है. भूटान की 8% और श्रीलंका की 4% आबादी गरीबी रेखा के नीचे आती है. भारत के पड़ोसियों में चीन और अफगानिस्तान की गरीबी रेखा से नीचे की आबादी के आंकड़े नहीं है.

आजादी से पहले कैसे तय होती थी गरीब आबादी
ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक दस्तावेज के मुताबिक, आजादी से पहले तीन बार भारत में गरीबी रेखा की परिभाषा तय की गई थी. पहली बार 1901 में, दूसरी बार 1938 और तीसरी बार 1944 में.1901 में जो गरीबी रेखा की परिभाषा तय हुई थी, उसके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति अपने खाने-पीने पर हर साल 16 से 35 रुपये तक खर्च करता है, तो वो गरीबी रेखा से नीचे नहीं आएगा. 1938 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी नेशनल प्लानिंग कमेटी ने माना था कि अपने रहन-सहन पर हर महीने 15 से 20 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे नहीं माना जाएगा. वहीं, 1944 में बॉम्बे प्लान ने सुझाव दिया था कि अगर कोई सालभर में 75 रुपये खर्च कर रहा है तो वो गरीबी रेखा से नीचे नहीं आएगा.

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