गुवाहाटी हाईकोर्ट ने दस साल पहले कहा था- एक असंवैधानिक संस्था है CBI, मच गया था तहलका

नई दिल्ली

संविधान और कानून के जानकार अच्छी तरह जानते हैं कि केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआइ को आजादी के पचहत्तर सालों में भी संवैधानिक वैधता नहीं मिल पाई है। इसीलिए गुवाहाटी की उच्च न्यायालय ने इसे दस साल पहले एक आदेश के जरिए असंवैधानिक संस्था करार देकर तहलका मचा दिया था। तब से यह संस्था सर्वोच्च न्यायालय के स्थगन आदेश पर क्रियाशील बनी हुई है। मगर अब केंद्र सरकार इसकी भूमिका और कार्यप्रणाली को वैधानिक श्रेणी में लाकर इसे देशव्यापी संस्था बनाने की तैयारी में है। अभी तक सीबीआइ ‘दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट 1946’ के तहत काम करती है। इस कानून की सीमाओं और वैधता पर विचार-विमर्श के बाद संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि सीबीआइ के लिए अलग से कानून बने। यह कानून ऐसा हो कि उसमें सीबीआइ की श्रेणी, कार्यप्रणाली अधिकार और क्षेत्र निर्धारित हों। इसकी निष्पक्षता और विश्वसनीयता स्थापित हो।

सर्वोच्च न्यायालय ने आधार कार्ड की वैधानिकता को भी कठघरे में लाया था
सीबीआइ को असंवैधानिक ठहराने का फैसला हैरत में डालने वाला जरूर था, लेकिन इस सवाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने आधार कार्ड की वैधानिकता को भी कठघरे में लाकर उसकी अनिवार्यता पर रोक लगा दी थी। बाद में इसे कानूनी वैधता संसद के जरिए दी गई। हमारे यहां गैरजरूरी और विसंगतियों से भरे ऐसे कई कानून हैं, जिनकी या तो जरूरत नहीं रह गई है या उन्हें विधायिका और कार्यपालिका अपने निजी हितों के लिए वजूद में बनाए रखना चाहती हैं।

सीबीआइ की मौजूदा स्थापना का कानून संसद से कभी पारित ही नहीं हुआ
सीबीआइ के कानूनी संस्थागत ढांचे को गैरकानूनी ठहराना उनके लिए आईना है, जो संसद की गरिमा और सर्वोच्चता का बखान करते नहीं अघाते। क्योंकि सीबीआइ की मौजूदा स्थापना का कानून संसद से कभी पारित ही नहीं हुआ। इसलिए गुवाहाटी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इकबाल अहमद अंसारी और इंदिरा शाह की युगल खंडपीठ ने बीएसएनएल के अधिकारी नवेंद्र कुमार की याचिका पर सुनवाई के बाद सीबीआइ को अवैधानिक संस्था ठहराया था। दरअसल, सीबीआइ ने नवेंद्र के खिलाफ भ्रष्टाचार का एक मामला 2001 में धारा 120 बी और आइपीसी की धारा 420 के तहत दर्ज किया था। इस बाबत नवेंद्र कुमार ने जनहित याचिका के जरिए सीबीआइ के गठन को ही चुनौती दे दी थी। हालांकि इस याचिका को एकल खंडपीठ ने खारिज कर दिया था, पर युगल पीठ ने सीबीआइ के वजूद को ही अपने फैसले में नकार दिया था।

इसकी स्थापना में केंद्रीय मंत्रिमंडल का फैसला भी नहीं था
अदालत ने कहा था कि संसद में कानून बनाए बिना, महज एक सचिव द्वारा तैयार किए गए प्रारूप और प्रस्ताव की मार्फत 1 अप्रैल, 1963 को सीबीआइ का गठन हो गया था। इस पर तत्कालीन सचिव वी विश्वनाथन ने दस्तखत किए थे। महज एक पृष्ठीय प्रस्ताव से प्रक्रिया पूरी कर ली गई थी। अदालत के समक्ष जब यह तथ्य आया तो वह चौकन्नी हुई और उसके जेहन में सवाल कौंधा कि क्या वाकई कोई सचिव सीबीआइ जैसी देशव्यापी एजेंसी खड़ी कर सकता है? इस लिहाज से अदालत ने सीबीआइ के तत्कालीन गठन को मौजूदा अनिवार्यताओं को पूरा करने के लिए एक अस्थायी उपाय माना। क्योंकि इस प्रस्ताव को वैधानिक स्वरूप देने के क्रम में न तो कोई अध्यादेश जारी हुआ था और न ही कानून में कोई संशोधन हुआ। यह केंद्रीय मंत्रिमंडल का फैसला भी नहीं था।

इसकी स्वीकृति राष्ट्रपति से भी नहीं ली गई थी
राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली से मंगवाए गए सीबीआइ के गठन के अभिलेखों से खुलासा हुआ कि इस कार्यकारी आदेश की स्वीकृति राष्ट्रपति से भी नहीं ली गई है। इसलिए इसे विभागीय आदेश तो माना जा सकता है, पर भारत सरकार का कानूनी आदेश नहीं माना जा सकता। इस फैसले के बाद सीबीआइ के कानूनी स्वरूप की समीक्षा और इसे कानूनी शक्ल दिए जाने का अवसर आ गया है। इस फैसले को केवल यह कह कर नहीं टाला जा सकता कि सीबीआइ बीते तिरसठ साल से वजूद में है, इसलिए इसके मौजूदा स्वरूप को ही बने रहना चाहिए।

हालांकि गुवाहाटी हाईकोर्ट द्वारा इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय के नजरिए को नजरअंदाज किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 1990 में दिए एक फैसले में डीएसपीई अधिनियम की वैधानिकता को स्वीकार किया था। तीन न्यायमूर्तियों की पीठ ने 2007 में और संविधान पीठ ने 2010 में सीबीआइ के गठन को संवैधानिक ठहराया था। इसके अलावा बहुचर्चित विनीत नारायण मामले में भी सुप्रीम कोर्ट सीबीआइ के मौजूदा स्वरूप के पक्ष में थी। आश्चर्यजनक है कि जब देश के सर्वोच्च न्यायालय और कई उच्च न्यायालयों ने सीबीआइ को अनेक आपराधिक मामलों की जांच के निर्देश दिए हैं, फिर एकाएक गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने इसकी वैधता पर प्रश्नचिह्न क्यों खड़ा कर दिया था?

ब्रिटिश हुकूमत में 1946 में दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम बना था
दरअसल, ब्रिटिश हुकूमत के दौरान 1946 में दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम बनाया गया था। इसका कार्यक्षेत्र केवल केंद्र शासित प्रदेशों तक सीमित रखते हुए इसे इंटेलिजेंस ब्यूरो के तहत रखा गया था। तब इसका मुख्य उद्देश्य क्रांतिकारी आंदोलनों और उनके आय के स्रोतों का पता लगाना था। 1948 में एक पुलिस महानिरीक्षक की तैनाती कर इस संस्था को उसके मातहत कर दिया गया। आजादी के बाद इसके कार्यक्षेत्र में विस्तार करने के साथ 1963 में इसके दायरे में भारतीय दंड विधान की अपराध को संज्ञान में लाने वाली 91 धाराएं जोड़ दी गईं। साथ ही 16 अन्य केंद्रीय अधिनियम और भ्रष्टाचार निरोधक कानून भी इसके दायरे में ला दिए गए। बाद में 1 अप्रैल 1963 को गृह मंत्रालय के सचिव वी विश्वनाथन ने एक प्रस्ताव बनाया और इसे कार्मिक मंत्रालय के अधीन कर दिया।

तदर्थ संस्था होने के बावजूद सीबीआइ तीन स्तरों पर काम करती है
तदर्थ संस्था होने के बावजूद सीबीआइ तीन स्तरों पर काम करती है। पहला, केंद्र सरकार और केंद्रशासित प्रदेशों के मामले। दूसरा, उच्च और सर्वोच्च न्यायालय से मिले आदेश का पालन, तीसरा, राज्य सरकारों के आग्रह पर जांच करना। सीबीआइ का वर्तमान ढांचा तीन शाखाओं के अंतर्गत काम करता है। पहली, भ्रष्टाचार निरोधक शाखा, दूसरी, आर्थिक अपराध शाखा और तीसरी, विशेष अपराध शाखा। 1946 के जिस कानून से सीबीआइ अस्तित्व में आई थी, उसके अनुसार राज्यों में अपराध दर्ज करने और जांच के लिए राज्य सरकारों की अनुमति आवश्यक है। सामान्य तौर पर राज्य सरकारें अनुमति दे देती हैं, लेकिन सीबीआइ की वैधानिकता पर उच्च न्यायालय द्वारा ही प्रश्नचिह्न लगा देने के बाद से कई राज्य सरकारों ने दी हुई सहमतियां वापस भी ले ली हैं। पिछले सात साल में नौ राज्य सरकारें सीबीआइ से सामान्य सहमति (जनरल कसेंट) वापस ले चुकी हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआइ को पिंजरे का तोता कहा था
हालांकि वर्तमान में सीबीआइ एक ऐसा ढांचा है, जिसे एक साथ तीन- गृह, कानून और कार्मिक- मंत्रालय नियंत्रित करते हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआइ को पिंजरे का तोता कहते हुए इसे स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था बनाने का निर्देश दिया था। जिससे यह महत्वपूर्ण संस्था एक तो राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना न बनी रहे और दूसरे, इसकी भूमिका न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग और नियंत्रक एवं लेखा महानिरीक्षक जैसी बन जाए। लेकिन तत्कालीन सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की थी।

संसद की सर्वोच्च गरिमा को ठेंगा दिखाना नौकरशाही के लिए कोई मुश्किल बात नहीं है। ऐसे ही एक कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर ने सीबीआइ को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर करवा दिया। जबकि यह बदलाव अगर जरूरी भी था, तो इसे संसद के पटल पर रख कर किया जाना चाहिए था। गोपनीयता कानून के तहत यह कार्रवाई की गई। बहरहाल, अब निर्वाचित प्रतिनिधियों को सोचने की जरूरत है कि वे आखिर संसद में किन कानूनी भूमिकाओं के निर्वहन में लगे हैं। शीर्ष न्यायालय ने स्थगन देकर सीबीआइ की लाज तो जरूर बचा ली, अलबत्ता अब इसे संवैधानिक स्वरूप देने की बारी आई है, तो संसद में इस मुद्दे पर आवश्यक विचार-विमर्श भी होना चाहिए।

 

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