महबूबा का काम बना रहे या बिगाड़ रहे हैं गुलाम नबी आजाद? अनंतनाग में उम्मीदवारी वापस लेने से किसे फायदा

नई दिल्ली,

डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी (डीपीएपी) के प्रमुख और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने अनंतनाग लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतरने का ऐलान किया था. आजाद ने अब अपने कदम वापस खींच लिए हैं. गुलाम नबी आजाद ने अब कहा है कि हम लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे.

आजाद के इस कदम के बाद सवाल ये उठ रहे हैं कि कभी कांग्रेस का कद्दावर चेहरा, राज्यसभा में विपक्ष का नेता और सूबे का सीएम रह चुके बड़े चेहरे ने चुनाव मैदान में उतरने का ऐलान कर नामांकन से पहले ही अपने कदम वापस क्यों खींच लिए? आजाद के उम्मीदवारी वापस लेने से किसका फायदा होगा?

एनसी और पीडीपी से मजबूत उम्मीदवार
गुलाम नबी आजाद के चुनाव लड़ने का ऐलान कर कदम वापस खींचने के पीछे कई फैक्टर्स की चर्चा है. इनमें से एक फैक्टर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की ओर से मजबूत उम्मीदवारों का चुनाव मैदान में होना है. पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती खुद इस सीट से चुनाव मैदान में हैं तो वहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस ने छह बार के विधायक पूर्व मंत्री मियां अल्ताफ अहमद को टिकट दिया है.

पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती इस सीट से दो बार सांसद रह चुकी हैं. वहीं, मियां अल्ताफ की बात करें तो वह गुर्जर समुदाय से आते हैं और उनकी पहचान गुर्जर, बकरवाल और पहाड़ी समुदाय के बीच लोकप्रिय नेता की है. मियां अल्ताफ के दादा मियां निजाम-उद-दीन भी नेशनल कॉन्फ्रेंस से विधायक रह चुके हैं. कश्मीर घाटी की दो प्रमुख पार्टियों ने समृद्ध राजनीतिक विरासत वाले नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा है.

अनंतनाग सीट का ट्रेंड और पब्लिक सेंटीमेंट
अनंतनाग लोकसभा सीट के चुनावी ट्रेंड की बात करें तो 1999 से अब तक इस सीट से एक बार नेशनल कॉन्फ्रेंस तो अगली बार पीडीपी के उम्मीदवार जीतते रहे हैं. 1999 में नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने महबूबा मुफ्ती को हरा दिया था. 2004 में महबूबा मुफ्ती जीतकर संसद पहुंचीं तो 2009 में यह सीट फिर से नेशनल कॉन्फ्रेंस के पास चली गई. 2014 में महबूबा मुफ्ती ने फिर से यह सीट छिन ली तो 2019 में नेशनल कॉन्फ्रेंस को जीत मिली. गुलाम नबी आजाद ने जिस कांग्रेस से किनारा कर अपनी पार्टी बनाई है, वह कांग्रेस भी पिछले कुछ चुनावों में जीत का सूखा खत्म नहीं कर पाई है.

चर्चा है कि गुलाम नबी आजाद के उम्मीदवारी वापस लेने के पीछे पब्लिक सेंटीमेंट और नेशनल कॉन्फ्रेंस की प्रचार रणनीति भी एक वजह हो सकती है. दरअसल, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता, खासकर उमर अब्दुल्ला पूर्व सीएम आजाद पर बीजेपी की मदद करने का आरोप लगाते हुए हमलावर थे. उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में कहा था कि आजाद इसलिए चुनाव लड़ रहे हैं ताकि सेक्यूलर वोट बंटें और बीजेपी की मदद हो सके. पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस पहले से ही आमने-सामने हैं, ऐसे में कहा जा रहा था कि गुलाम नबी आजाद के चुनाव लड़ने से मुस्लिम वोट बंटेंगे और इसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है.

आजाद का फोकस विधानसभा चुनाव पर फोकस
अपनी पार्टी बनाने के बाद आजाद का फोकस कश्मीर की सियासत पर ही है. वह जानते हैं कि अगर उनकी पार्टी सभी लोकसभा सीटें जीत ले, तब भी वह दिल्ली में गेमचेंजर या किंगमेकर नहीं बन पाएगी. लोकसभा चुनाव में जिस तरह से नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के नेता उनकी बीजेपी के मददगार की इमेज गढ़ने में जुटे थे, आजाद को शायद लगा हो कि इसका नुकसान उनको विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ सकता है.

आजाद के पीछे हटने से किसका फायदा
गुलाम नबी आजाद के उम्मीदवारी से पीछे हटने के बाद अब बात इसे लेकर भी हो रही है कि अनंतनाग में पीडीपी या नेशनल कॉन्फ्रेंस, इसका फायदा किसे होगा? यह चर्चा आधारहीन भी नहीं. जब अपनी पार्टी का कोई उम्मीदवार नहीं होगा तो डीपीएपी के समर्थक आखिर किसी को तो वोट और सपोर्ट करेंगे ही.

कांग्रेस छोड़ने के बाद से आजाद के तेवर अपनी पुरानी पार्टी को लेकर जैसे रहे हैं, उसे देखते हुए यह संभावनाएं कम ही हैं कि वह उसकी गठबंधन सहयोगी नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार का समर्थन करेंगे. आजाद की पार्टी के समर्थक भले ही खुलकर किसी के साथ न आएं लेकिन पर्दे के पीछे से महबूबा मुफ्ती का समर्थन कर सकते हैं.

अब आजाद के चुनाव मैदान से पीछे हटने से किसे कितना नफा होता है और किसे कितना नुकसान, यह तो चुनाव नतीजे ही बताएंगे लेकिन इससे एक बात तय हो गई है कि अब अनंतनाग में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के बीच सीधा मुकाबला होगा. दो प्रभावशाली नेताओं की लड़ाई में ट्रेंड टूटेगा या बरकरार रहेगा, ये 4 जून की तारीख ही बताएगी.

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