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विवाहित पुत्री माता-पिता पर आश्रित नहीं मानी जा सकती… सुप्रीम कोर्ट ने बोला साफ-साफ

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नई दिल्ली

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि विवाहित लड़की अपने माता-पिता पर आश्रित नहीं मानी जा सकती है। वह आश्रित नहीं, बल्कि केवल कानूनी प्रतिनिधि हो सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक विवाहित पुत्री की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने अपनी मृतक मां के आश्रित होने के आधार पर मोटर दुर्घटना मुआवजे की मांग की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक बार जब पुत्री विवाह कर लेती है, तो यह तर्कसंगत रूप से माना जाता है कि अब उसका अधिकार उसके ससुराल में होता है और वह अपने पति या उसके परिवार द्वारा आर्थिक रूप से समर्थित होती है। अदालत ने स्पष्ट किया कि कोई विवाहित पुत्री कानूनी प्रतिनिधि हो सकती है, लेकिन उसे आश्रित होने के आधार पर मुआवजा तभी मिलेगा, जब वह यह साबित कर सके कि वह मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थी।

जस्टिस सुधांशु धूलिया की अगुआई वाली बेंच ने उस मामले में फैसला दिया, जिसमें महिला की मौत राजस्थान रोडवेज की बस के दोपहिया से टकराने से हो गई थी। हादसे में मारी गई महिला की विवाहित पुत्री और बुजुर्ग मां ने 54.3 लाख की मुआवजा याचिका दायर की थी। शुरुआत में मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (MACT) ने याची बेटी को क्षतिपूर्ति दी थी लेकिन हाई कोर्ट ने यह नोट करते हुए मुआवजा घटा दिया कि पुत्री की मृतक पर निर्भरता साबित नहीं हुई थी और अपीलकर्ता मृतका की मां को दी गई क्षतिपूर्ति को पूरी तरह से रद्द कर दिया। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया। मृतका की मां और बेटी दोनों ने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।

सुप्रीम ने और क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हमें लगता है कि हाई कोर्ट ने सही तरीके से यह माना कि अपीलकर्ता संख्या 1 (पुत्री) केवल मृतक की कानूनी प्रतिनिधि के रूप में मोटर वाहन अधिनियम की धारा 140 के अंतर्गत मिलने वाली क्षतिपूर्ति की हकदार है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हाई कोर्ट ने मृतक की मां (अपीलकर्ता संख्या 2) को दी गई क्षतिपूर्ति को रद्द करने में गलती की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मृतक की मां उस समय लगभग 70 वर्ष की थीं और मृतका के साथ रहती थीं और उनके पास कोई स्वतंत्र आय नहीं थी। रेकॉर्ड में इसका कोई खंडन नहीं है। अतः यह मानना उचित है कि मृतक पर उनकी बूढ़ी मां पूरी तरह आश्रित थीं।

बूढ़ी मां को मुआवजा देने का निर्देश
इसी के साथ अदालत ने कहा कि जैसे माता-पिता का अपने नाबालिग बच्चे का पालन-पोषण करना कर्तव्य है, वैसे ही वृद्धावस्था में बच्चे का अपने माता-पिता का भरण-पोषण करना भी कर्तव्य है। मृतका, एकमात्र कमाने वाली सदस्य थीं और यह कर्तव्य निभा रही थीं। इस वजह से उनकी मौत से मां के लिए कठिनाइयां उत्पन्न होंगी। भले ही यह माना जाए कि मां उस समय पूरी तरह आश्रित नहीं थीं, फिर भी भविष्य में आश्रय की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने विवाहित पुत्री के मामले में हाई कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा, लेकिन मृतक की मां के मुआवजे को खारिज करने वाले आदेश को रद्द करते हुए 19,22,356 का मुआवजा देने का निर्देश दिया। अपील आंशिक रूप से स्वीकार की गई।

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