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किसी सदस्य को दंडित करने का… नेताओं के अपराध पर संसद से सजा पर सुप्रीम कोर्ट दे सकता है दखल

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नई दिल्ली

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस फैसले में संवैधानिक अदालतों को विधायिका की ओर से अपने सदस्य को दी गई सजा की जांच करने के लिए दिशानिर्देश दिए गए हैं। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन के सिंह की बेंच ने यह फैसला दिया। इस फैसले से अदालतों को सजा की न्यायिक समीक्षा करने की अनुमति मिलती है, जो पहले विधायिकाओं का क्षेत्र माना जाता था।

यह फैसला ‘राजा राम पाल केस’ पर आधारित है, जिसमें संसद और विधानसभाओं को संविधान में दिए गए आधारों के अलावा अन्य कारणों से भी अपने सदस्यों को निष्कासित करने का अधिकार बताया गया था। इस नए फैसले में बिहार विधान परिषद की ओर से RJD के मुख्य सचेतक सुनील कुमार सिंह को निष्कासित करने के फैसले को रद्द कर दिया गया। अदालत ने कहा कि विधायिकाओं का किसी सदस्य को दंडित करने का अधिकार पूर्ण नहीं है और न्यायिक समीक्षा से परे है।

सुप्रीम कोर्ट ने ‘राजा राम पाल केस’ के फैसले को और स्पष्ट करते हुए कहा कि न्यायिक समीक्षा के मानकों का न होना, न्यायिक जांच को रोकने का कारण नहीं है। अगर ऐसे मामलों की न्यायिक समीक्षा के मानक अभी तक तय नहीं हैं, तो अब उन्हें तय करने का समय आ गया है। इसके साथ ही, SC ने संवैधानिक अदालतों के लिए दिशानिर्देश तय किए हैं ताकि वे विधायिका की ओर से किसी सदस्य को दी गई सजा की आनुपातिकता की जांच कर सकें।

इससे यह तय हो सकेगा कि सजा, कदाचार के अनुपात में है या नहीं। जस्टिस कांत ने सदन के अंदर की परिस्थितियों की जटिलता को स्वीकार करते हुए कहा कि यह तय करना कि क्या अनुपातहीन है, जटिल है और हर मामले के संदर्भ पर निर्भर करता है। ऐसे आकलन के लिए हर मामले की विशिष्ट परिस्थितियों की बारीकी से जांच करने की आवश्यकता होती है। इसका मतलब है कि सभी मामलों के लिए एक जैसा फैसला व्यावहारिक नहीं है। अदालतों को अपने विवेक का प्रयोग समझदारी से करना चाहिए।

अनुच्छेद 105 का हवाला
सदन की कार्यवाही के सुचारू संचालन पर जोर देते हुए, SC ने संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत किसी भी सदस्य या सत्ताधारी दल को सदन के अंदर कुछ भी कहने की छूट नहीं दी है। बेंच ने संवैधानिक अदालतों के लिए आठ सूत्रीय ‘निर्देशक मानदंड’ तय किए हैं, जिससे वे सदन द्वारा अपने सदस्यों के खिलाफ की गई कार्रवाई की जांच कर सकें।

  • ये मानदंड हैं
  • सदस्य की ओर से सदन की कार्यवाही में बाधा की डिग्री।
  • क्या सदस्य के व्यवहार से पूरे सदन की गरिमा को ठेस पहुंची है।
  • सदस्य का पिछला आचरण।
  • सदस्य का बाद का आचरण, जैसे पश्चाताप व्यक्त करना, संस्थागत जांच तंत्र के साथ सहयोग
  • दोषी सदस्य को अनुशासित करने के लिए कम प्रतिबंधात्मक उपायों की उपलब्धता।
  • क्या कही गई अभद्र बातें जानबूझकर और प्रेरित हैं या केवल स्थानीय बोली से प्रभावित भाषा का परिणाम हैं
  • क्या अपनाया गया उपाय वांछित उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए उपयुक्त है।
  • समाज, विशेष रूप से मतदाताओं के हितों को दोषी सदस्य के हितों के साथ संतुलित करना।

जजों ने क्या कहा?
जस्टिस कांत और सिंह ने कहा, ‘हमारा मानना है कि उपरोक्त ढांचे पर सदन की ओर से सदस्यों को दी गई सजा की जांच यह सुनिश्चित करेगी कि विधायी कार्रवाई उचित, आवश्यक और संतुलित हो।’ यह विधायी निकाय की अखंडता और उसके सदस्यों के अधिकारों, साथ ही व्यापक सामाजिक उद्देश्य दोनों की रक्षा करेगा। यह भी जरूरी है कि ऐसी विधायी कार्रवाई इस मूल सिद्धांत को ध्यान में रखे कि सजा देने का उद्देश्य प्रतिशोध का साधन नहीं है, बल्कि सदन के भीतर अनुशासन को बनाए रखना और लागू करना है।’ इस फैसले को विधायिका की शक्तियों पर न्यायपालिका की एक अहम रोक के तौर पर देखा जा रहा है।

महत्वपूर्ण मिसाल कायम करता है ये फैसला
यह फैसला संसदीय विशेषाधिकारों और न्यायिक समीक्षा की सीमाओं पर महत्वपूर्ण सवाल उठाता है। राजा राम पाल मामले में, पांच जजों की बेंच ने कहा था कि, ‘निष्कासन की शक्ति लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विपरीत नहीं है। यह बल्कि एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गारंटी का हिस्सा है। इसके अलावा, निष्कासन किसी एक व्यक्ति का निर्णय नहीं है। यह देश के बाकी प्रतिनिधियों द्वारा लिया गया निर्णय है। अंत में, निष्कासन की शक्ति किसी सदस्य को फिर से चुनाव के लिए खड़े होने या निर्वाचन क्षेत्र को उस सदस्य को एक बार फिर से चुनने से नहीं रोकती है।’ यह फैसला इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि सदन के अंदर की कार्यवाही सुचारू रूप से कैसे चले। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि सदस्यों के अधिकारों और सदन की गरिमा के बीच संतुलन बना रहे। यह फैसला भविष्य में संसद और विधानसभाओं की ओर अपने सदस्यों के खिलाफ की जाने वाली कार्रवाई के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करता है।

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