यही अप्रैल का महीना था। वर्ष था 2011 यानी 12 साल पहले। जन लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर महीने के पहले हफ्ते में ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में जंतर मंतर पर आंदोलन शुरू हो गया। समाजसेवी अन्ना हजारे इस आंदोलन का चेहरा था। लेकिन आंदोलन की सारी रूपरेखा तैयार की थी, अरविंद केजरीवाल ने। पतंजलि योगपीठ के संस्थापक बाबा रामदेव, पूर्व आईपीएस किरण बेदी, वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण, चुनाव विश्लेषक राजेंद्र यादव समेत देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों से संबद्ध गणमान्य लोग आंदोलन के स्तंभ थे। उस दौर की मनमोहन सिंह सरकार में एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे थे। संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन (UPA) का दूसरा कार्यकाल लगातार घोटालों से पूरी तरह दागदार हो चुकी थी। भ्रष्टाचार देश में एक बड़ा मुद्दा बन चुका था। इस कारण आंदोलन को देशवासियों ने हाथोंहाथ ले लिया। अपार जनसमर्थन मिला जनलोकपाल आंदोलन को।
आंदोलन खत्म होते-होते अरविंद केजरीवाल की छवि भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की नैया के असली खेवनहार की बन गई। उनमें एक बड़ी आबादी को उम्मीद दिखने लगी। खासकर युवा वर्ग काफी प्रभावित हुआ। केजरीवाल आंदोलन के बाद भी मीडिया की सुर्खियां बटरोते रहे। वो कैमरे के सामने कभी भी आते तो इतने सादे लिबास में कि आम आदमी उन्हें अपने बीच का व्यक्ति मानने लगा। गर्मियों में हाफ सर्ट को फुलपैंट से ऊपर और पांव में साधारण सी चप्पल। सर्दियों में गंवई अंदाज से कान में मफलर लपेटते और मिनट-मिनट में खांसी करते केजरीवाल में लोगों को अपना मसीहा दिखता। जनता की भावना को मीडिया केजरीवाल तक पहुंचाने लगी। सवाल होने लगा- क्या आप राजनीति में आएंगे? क्या आप पार्टी बनाएंगे? केजरीवाल बार-बार इनकार कर देते। आज अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं।
खबर लिखते वक्त ही खबर आ गई कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (AAP) को राष्ट्रीय दल का दर्जा मिल गया है। पार्टी ने पंजाब में जबर्दस्त जीत हासिल की थी और गुजरात विधानसभा चुनावों में भी उसे करीब 12 प्रतिशत वोट मिले थे। तब से पार्टी देशभर में अपना पांव पसारने के प्रयासों पर बल देने लगी है और अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बढ़ा रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुद को सबसे ताकतवर चेहरा साबित करने की होड़ में उन्होंने ‘डिग्री कैंपेन’ छेड़ रखा है। उनका दावा है कि नरेंद्र मोदी देश के सबसे कम पढ़े लिखे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें विज्ञान की बिल्कुल भी समझ नहीं है। वो मोदी को उनकी डिग्री दिखाने को ललकार रहे हैं। हालांकि, इसी मुद्दे पर गुजरात हाई कोर्ट हफ्ते-दस दिन पहले ही उन पर 25 हजार रुपये का जुर्माना लगा चुका है। बावजूद इसके उन्होंने ‘डिग्री अभियान’ को और तेज कर दिया है। इसी के तहत, दिल्ली मंत्रिमंडल में नई-नई शामिल हुईं आतिशी मारलेना ने एक वीडियो ट्वीटकर अपनी डिग्री दिखा दी है।
मजे की बात है कि केजरीवाल को नसीहत भी मिलने लगी है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) चीफ और विपक्ष का एक मजबूत चेहरा शरद पवार ने कहा कि डिग्री विवाद को तूल देने से कोई फायदा नहीं। यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है। बात तो महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर होनी चाहिए। वहीं, हरियाणा की प्रादेशिक पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी ने केजरीवाल का नाम लिए बिना उनके संभ्रांतवादी सोच का व्यक्ति बता दिया। उन्होंने ट्वीट किया, ‘मेरे पास एमएससी डिग्री है। मेरे पिता आईआईटीयन थे और मेरे दादा ने ‘सतत और न्यायसंगत विकास’ विषय पर आर्थिक ग्रंथ लिखा। लेकिन मैं शैक्षणिक योग्यता पर आधारित इस राजनीतिक अभियान को संभ्रांतवादी सोच की निशानी मानता हूं जो दो महत्वपूर्ण प्रदेशों में सरकार बनाने वाली पार्टी के लायक नहीं मानता हूं।’
जयंत चौधरी हरियाणा के बड़े नेता अजीत सिंह के पुत्र हैं और चौधरी चरण सिंह के पोते हैं। उनकी यह टिप्पणी कि आप का डिग्री कैंपेन अभिजात्यवादी सोच से प्रेरित है, केजरीवाल के दावों के बिल्कुल उलट है। ऊपर बात हो चुकी है कि कैसे अरविंद केजरीवाल ने सार्वजनिक जीवन में पदार्पण के पहले दिन से ही अपनी आम आदमी की छवि बनाने की हर संभव कोशिश की है। हालांकि, केजरीवाल की इन कोशिशों को उन्होंने ही गाहे-बगाहे झटका देते रहे। उन्होंने नेताओं, मंत्रियों को मिली सरकारी सुविधाओं पर क्या-क्या नहीं, कहा लेकिन सरकार में आते ही बंगला, गाड़ी के साथ-साथ सुरक्षा को भी स्वीकार किया। खुद केजरीवाल, उनकी सरकार के मंत्रीगण और पार्टी के नेता किसी भी मामले में सादगी की कोई नजीर पेश कर सके हों, अब तक तो ऐसा नहीं ही दिखा है। हैरत की बात यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कारण सत्ता में आए केजरीवाल के अपने ही दो-दो मंत्री सत्येंद्र जैन और मनीष सिसोदिया भ्रष्टाचार के केस में ही जेल में बंद हैं। वो भी तब जब केजरीवाल खुद दोनों को कट्टर ईमानदार का सर्टिफिकेट दे चुके हैं और अब भी देते हैं।
ऐसे में केजरीवाल और उनके नेता-मंत्री किस हद तक आम आदमी हैं और उनकी पार्टी किस हद तक आम आदमी की है, यह तो किसी से छिपी नहीं रह गई है। तो क्या केजरीवाल अभिजात्यवादी विचार के हैं, जैसा कि जयंत चौधरी ने कहा है? इसका जवाब जो भी हो, लेकिन उनके डिग्री कैंपेन पर कुछ गंभीर सवाल जरूर खड़े होते हैं। मसलन, क्या वो बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से अब दूरी बना लेंगे? क्या मौलाना आजाद को देश का पहला शिक्षा मंत्री बनाकर जवाहर लाल नेहरू ने गलत किया था? लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्रियों ने भी तो कोई बड़ी डिग्री हासिल नहीं की थी। तो क्या ये सभी खराब प्रधानमंत्री थे? फिर अन्ना हजारे भी तो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं तो क्या देशवासी उनकी अपील पर एक सुर में आंदोलन के राग नहीं गाने लगे थे? केजरीवाल जब तक चाहें प्रधानमंत्री मोदी से डिग्री दिखाने का अभियान चलाते रहें, लेकिन उन्हें इन सवालों का जवाब भी देना चाहिए।
डिग्री कैंपेन से केजरीवाल की संभ्रांतवादी सोच का उजागर होने या ना होने की बात अलग है। इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि उनकी आम आदमी की छवि को बट्टा लगने का सिलसिला जरूर आगे बढ़ा है। भला कौन से आम आदमी को मतलब है कि पीएम मोदी की डिग्री क्या है? आखिर केजरीवाल किस हिसाब से इस नतीजे पर पहुंच गए कि पीएम मोदी पर डिग्री दिखाने का दबाव बनाकर वो अपना वोट बैंक बढ़ा लेंगे? क्या उन्होंने कोई सर्वे कराया है? कैसे पता चला कि यह मुद्दा उन्हें वोट दिलाएगा या उनकी छवी और पार्टी को नुकसान पहुंचाएगा? अरविंद केजरीवाल को विरोधी गुट में एक शातिर राजनेता के रूप में देखा जाता रहा है। वो सही मुद्दे उठाते रहे हैं और कभी गलती महसूस हो तो सुधार भी कर लिया करते हैं। डिग्री कैंपेन से उनकी सियासत की समझदारी पर भी सवाल गहरा सकता है। ऐसा लगता है कि केजरीवाल पहली बार रास्ते से कुछ ज्यादा भटक गए हैं।