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अमेरिका दिल चीर रहा फिर भी भारत भौंह सिकोड़ रहा! क्या रिश्तों की सच्चाई यही है या कुछ और?

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नई दिल्ली

भारत और अमेरिका के बीच करीबी बढ़ रही है। दोनों एक-दूसरे को पहले से ज्यादा तवज्जो भी दे रहे हैं। वक्त और हालात की मांगों के मुताबिक दोनों देश एक-दूसरे को दोस्त भी बताने लगे हैं, लेकिन क्या सच में ऐसा ही है? अमेरिका ने तो भारत को अपना रणनीतिक साझेदार घोषित करी दिया है, क्वाड जैसे बिल्कुल करीबी गठजोड़ का हिस्सा बनाया है, अत्याधुनिक रक्षा तकनीक साझा करने को तैयार है, फिर यह सवाल क्यों?

अतीत के कड़वे अनुभव और मौजूदा खींचतान के सबक
दरअसल, अतीत के अनुभव और भू-राजनैतिक उथल-पुथल की वर्तमान परिस्थितियां भारत-अमेरिका के रिश्तों को अक्सर कसौटियों पर कसते रहते हैं। दोनों देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में हो रही साझेदारियों पर गौर करें तो कई बार ऐसा लगता है कि भारत का भरोसा जीतने के लिए अमेरिका मानो दिल चीरकर दिखाने की हद तक जा रहा है। लेकिन नजदीकियां और आपसी सहयोग बढ़ने के बावजूद वक्त-वक्त पर सवाल उठते रहते हैं कि क्या भारत कभी अमेरिका पर पूरी तरह से भरोसा कर सकता है?

मेरिका की इन चालों से भारत का संदेह वाजिब
संदेह की जड़ें इतिहास के महत्वपूर्ण क्षणों में वापस जाकर खोजी जा सकती हैं। अमेरिका के सामने जब भी भारत और पाकिस्तान के हितों का टकराव होता है तो वह अक्सर पाकिस्तान के साथ खड़ा होता है। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ तो अमेरिका ने भारत के खिलाफ अपना सातवां बेड़ा बांग्लादेश की खाड़ी में तैनात कर दिया ताकि जीतता हुआ भारत युद्ध रोक दे। तब भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन थे। फिर 1998 में 13 दिन के लिए अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री की सरकार बनी तो भारत ने परमाणु परीक्षण कर डाले। 11 और 13 मई, 1998 को राजस्थान के पोखरण में पांच परमाणु परीक्षण किए गए थे। इस पर अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंधों की बाड़ लगा दी।

आज की परिस्थिति भी बदली नहीं है। अब भी लोकतंत्र और मानवाधिकार पर भारत को पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका पाकिस्तान में मानवता की धज्जियां उड़ता देख या तो चुप रहता है या फिर विरोध की औपचारिकता भर निभाता है। इतना ही नहीं, अमेरिका अपने यहां भारत विरोधी ताकतों को न केवल पाल रहा है बल्कि उनके समर्थन में भारत को ही कटघरे में खड़ा करने से तनिक भी नहीं हिचकचाता। अभी बांग्लादेश में जिस तरह भारत विरोधी ताकतों का साथ देकर अमेरिका ने सत्ता परिवर्तन करवाया, उसे दोस्ती की भावना को बढ़ावा तो नहीं ही मिल सकती है।

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा जैसे कार्यक्रमों ने सेमीकंडक्टर निर्माण सौदे और बढ़े हुए रक्षा सहयोग जैसे आशाजनक समझौते किए हैं, लेकिन इन्हीं वजहों से आपसी संदेह कायम हैं। आलोचकों का तर्क है कि अमेरिका के पास प्रतिबंध लगाने और अन्य देशों के मामलों में हस्तक्षेप करने का एक ट्रैक रिकॉर्ड है, जो गुप्त उद्देश्यों की आशंकाओं को बढ़ाता है।

खालिस्तानी आतंकियों के मामले पर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल को जारी किए गए समन से जुड़ा हालिया विवाद अमेरिका की मंशा पर संदेह को और गहरा बनाता है। इसके अतिरिक्त, जिन नैरेटिव्स पर भारत के राजनीतिक परिदृश्य को पेश किया जा रहा है, उससे दक्षिण एशिया में अस्थिरता पैदा करने वाली शक्ति के रूप में अमेरिका की पहचान गहराती है। ऐसी कई वजहें हैं जिनसे लगता है कि अमेरिका भारत की संप्रभुता को कमजोर करने के इरादे रखता है।

पक्की दोस्ती की राह में कई रुकावटें
भारत और अमेरिका के बीच पक्की दोस्ती की स्थापना में कई रुकावटें हैं। पहली रुकावट रणनीतिक प्राथमिकताओं में भिन्नता है, खास तौर पर चीन के मामले में। जबकि दोनों देश बीजिंग से बढ़ते खतरे को पहचानते हैं, उनके दृष्टिकोण में काफी अंतर है। रूस के साथ भारत के ऐतिहासिक संबंध इसके रुख को जटिल बनाते हैं, क्योंकि यह पश्चिम के साथ अधिक गहराई से जुड़ने के साथ-साथ उन संबंधों को संतुलित करने का प्रयास करता है।

इसके अलावा, भारत में लोकतांत्रिक मर्यादाओं के पतन की धारणा अमेरिका के भीतर चिंता पैदा करती है, जिससे मानवाधिकारों के मुद्दों पर टकराव होता है। बाइडेन प्रशासन का लोकतांत्रिक मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करना दोनों देशों के बीच संबंधों में एक दरार पैदा करता है जिसे अभी तक पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया गया है। यह गतिशीलता दोनों देशों में घरेलू राजनीतिक दबावों से और बढ़ जाती है, जिसमें प्रत्येक पक्ष अपनी-अपनी आबादी की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए संघर्ष करता है।

वास्तविकता यह है कि दोनों राष्ट्रों के लक्ष्य समान हैं, लेकिन उनके दृष्टिकोण और प्राथमिकताएं अलग-अलग हो सकती हैं, जिससे गलतफहमी पैदा होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। इन मतभेदों को दूर करने और सहयोग के लिए अधिक ठोस आधार बनाने के लिए पारदर्शी संचार और स्पष्ट चर्चा की आवश्यकता है।

क्या अमेरिका पर भारत को भरोसा बढ़ाना चाहिए?
प्रश्न उठता है कि क्या भारत को अपने संदेहों को अलग रखना चाहिए और अमेरिका के साथ अधिक भरोसेमंद संबंध अपनाना चाहिए? समर्थकों का तर्क है कि सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग और डिफेंस टेक्नॉलजी पर महत्वपूर्ण समझौतों से दोनों देशों के बीच विकासशील रणनीतिक साझेदारी सहयोग के एक नए युग का संकेत मिलता है। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के हालिया बयान भी इस बिंदु पर जोर देते हैं। उन्होंने भारत-अमेरिकी संबंधों को 21वीं सदी की परिभाषित साझेदारी बताया। हालांकि, ऐतिहासिक शिकायतों और वर्तमान भू-राजनीतिक पेचीदगियों में अंतर्निहित अविश्वास, इस विश्वास की धारणा के प्रति पूरी भारत की निष्ठा को कमजोर कर देता है।

इन चिंताओं के बावजूद, भारत के लिए संदेह से आगे बढ़ने और अमेरिका के साथ एक मजबूत साझेदारी को बढ़ावा देने के एक नहीं, अनेक उचित कारण हैं। समर्थकों का तर्क है कि अमेरिका वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में भारत का सबसे व्यवहार्य सहयोगी बना हुआ है, खासकर चीन जैसे सत्तावादी शासन के प्रभाव का मुकाबला करने में। बाइडेन प्रशासन ने रक्षा, प्रौद्योगिकी और व्यापार सहित विभिन्न मोर्चों पर भारत के साथ जुड़ने की इच्छा दिखाई है, जो उनकी साझेदारी के रणनीतिक महत्व पर जोर देता है।

इसके अलावा, जैसा कि भारत अपनी सैन्य क्षमताओं और तकनीकी बुनियादी ढांचे को बढ़ाने का प्रयास करता है, अमेरिका के साथ सहयोग आवश्यक संसाधन और विशेषज्ञता प्रदान कर सकता है। डिफेंस टेक्नॉलजी और महत्वपूर्ण उभरती प्रौद्योगिकियों पर उच्च-स्तरीय चर्चा और समझौते एक ‘व्यापक और वैश्विक रणनीतिक साझेदारी’ के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं, जो भारत को वैश्विक डिजिटल परिदृश्य में एक निष्क्रिय भागीदार से एक सक्रिय खिलाड़ी में बदलने में मदद कर सकता है।

भारत-अमेरिका संबंधों में आगे का रास्ता क्या?
इन चुनौतियों के बावजूद, भारत-अमेरिका के संबंधों की यात्रा सतर्क लेकिन आशावादी भविष्य की ओर इशारा करता है। द्विपक्षीय संबंध काफी परिपक्व होकर एक लेनदेन वाली साझेदारी से विकसित होकर व्यापक रणनीतिक हितों को शामिल करने वाले बन गए हैं। हालांकि, इस विकास के लिए ईमानदार संवाद और ऐतिहासिक शिकायतों तथा वर्तमान अनिश्चितताओं का सामना करने की इच्छा की आवश्यकता है।

कूटनीति के जानकार कहते हैं कि दोनों देशों को सतही स्तर के कूटनीतिक इशारों से आगे बढ़कर अधिक स्पष्ट और रचनात्मक बातचीत करनी चाहिए, जो अक्सर हाई-प्रोफाइल बैठकों की विशेषता होती है। ऐसा करके वे अपने आपसी हितों को स्पष्ट कर सकते हैं और अपनी साझेदारी पर छाए संदेह को दूर कर सकते हैं।

कुल मिलाकर, भारत-अमेरिका संबंध एक चौराहे पर खड़ा है। संदेह अपनी जगह, लेकिन भारत के लिए अपने अमेरिकी समकक्ष के प्रति अधिक भरोसेमंद दृष्टिकोण अपनाने का एक मजबूत आधार है। हालांकि, एक मजबूत दोस्ती हासिल करने के लिए अंतर्निहित बाधाओं को दूर करने, खुली बातचीत को बढ़ावा देने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि दोनों देश अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं को रेखांकित करें। जैसे-जैसे विश्व ज्यादा से ज्यादा बहुध्रुवीय होता जा रहा है, इन जटिलताओं से निपटने में भारत और अमेरिका की क्षमता क्षेत्रीय स्थिरता और वैश्विक सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण होगी।

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