देश की आबादी में आदिवासी 8.7 फीसदी हैं। ये अलग-अलग राज्यों में फैले हैं। अच्छी-खासी आबादी होने के बावजूद इन्हें राजनीति में कभी खास तवज्जो नहीं मिली। सरकार की आधिकारिक भाषा में वे अनुसूचित जाति (SC) का ‘प्रत्यय’ बने रहे। राजनीतिक दलों में SC/ST सेल और केंद्रीय व राज्य ST/ST आयोग इसकी बानगी हैं। हालांकि, भारतीय जनता पार्टी (BJP) के लिए आदिवासी (Tribes) उसकी राजनीति का अहम हिस्सा रहे हैं। यह और बात है कि पार्टी ने इन पर फोकस 2014 के बाद प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में बढ़ाया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भी आदिवासियों की सामूहिक पहचान के लिए प्रयासरत रहा है।
वाजपेयी सरकार के दौरान ही आदिवासियों के लिए अलग राष्ट्रीय आयोग गठित हुआ। यह काम 89वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के जरिये हुआ। हालांकि, मोदी सरकार में आदिवासी समुदाय को मोबलाइज करने के लिए ज्यादा व्यवस्थित तरीके से कोशिशें शुरू हुईं। प्रधानमंत्री वन धन योजना इसकी मिसाल है। इसे आदिवासी समुदाय तक पहुंच बढ़ाने के लिए ज्यादा पर्सनलाइज्ड किया गया। इसके तहत उनकी पारंपरिक उपज में वैल्यू एडिशन पर जोर बढ़ाया गया। इसके पीछे मंशा उनकी इनकम बढ़ाना था। इसके अलावा सरकार ने आदिवासी इलाकों में एजुकेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास को प्रोत्साहित किया। एकलव्य मॉडल रेजिडेंशियल स्कूलों को हाल के वर्षों में खास महत्व दिया गया है।
सम्मान के साथ प्रतिनिधित्व की राजनीति
प्रधानमंत्री ने आदिवासी समुदाय का गौरव बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास किए हैं। इसके लिए समुयदाय के नायकों, इतिहास, संस्कृति के साथ भारत को जोड़ने पर जोर दिया गया है। 2021 से जनजातीय गौरव दिवस मनाया जाने लगा है। यह आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की याद में मनाया जाता है।
पीएम को शायद यह भी एहसास हुआ है कि प्रतिनिधित्व के बगैर सम्मान पूरा नहीं हो सकता है। बीजेपी की संथल समुदाय से आने वाली द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति की उम्मीदवार के तौर पर पेश करने की कवायद अनूठी थी। इसके कारण आदिवासियों के बारे में पहली बार ऐसी चर्चा शुरू हुई जैसी पहले कभी नहीं हुई थी। यहां तक आदिवासी नायकों के सार्वजनिक प्रतिनिधित्व में भी बड़ा बदलाव आया है। प्रधानमंत्री ने हाल में अल्लूरी सीताराम राजू की प्रतिमा का अनावरण किया था। वह आंध्र प्रदेश में ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ रम्पा क्रांति के नायक थे।
बीजेपी की आदिवासी राजनीति आरएसएस के काम का आईना है। संगठन 1960 से आदिवासियों के लिए काम करता रहा है। आरएसएस इसमें धर्मांतरण के खतरे को भी देखता है। उसे लगता है कि इस समुदाय के बड़े वर्ग का ईसाई मिशनरी धर्मांतरण कर सकते हैं। संघ के संगठन वनवासी कल्याण आश्रम जैसे स्कूलों का बड़ा नेटवर्क चलाते हैं। इनके जरिये भारतीय संस्कृति के बारे में पढ़ाया जाता है। आदिवासी छात्रों के लिए ये स्कूल चलाए जाते हैं। इन स्कूलों ने आदिवासियों के एक वर्ग के दिलो-दिमाग में अलग जगह बना ली है। ये स्कूल आदिवासी खेलों और इनके ज्ञान को प्रोत्साहन देते हैं। यहां तक गांधीवादी और सर्वोदय संगठन भी संघ के साथ अब करीब से काम कर रहे हैं। नक्सल आदिवासियों के मोबलाइजेशन पर फोकस करते रहे हैं। इनका आधार भी सिकुड़ता जा रहा है।
चुनावी चुनौतियां अब भी हैं कायम
बीजेपी मानती है कि आदिवासियों के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए कुछ चीजें जरूरी हैं। इन्हीं में एक है उनकी हिस्सेदारी को बढ़ाना। कुछ मायनों में वे अलग-थलग रहे हैं। ये गैर-आदिवासी समुदायों के उलट ज्यादातर बहुत दबाव डालने वाले नहीं रहे हैं। लंबे समय तक आदिवासी कांग्रेस को वोट करते रहे हैं। ऐसा बिना किसी मुखरअपेक्षा के बगैर किया गया। अब यह समुदाय बीजेपी की ओर बढ़ा है। कुछ क्षेत्रों में यह पार्टी के बड़े वोट बैंक में तब्दील हो चुका है। बीजेपी के विस्तार में आदिवासी वोटरों का खासा योगदान रहा है। हालांकि, आदिवासी पहचान रखने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) और बीटीपी उसकी राह में रोड़ा रहे हैं।
इन राजनीतिक रोड़ों से उबरने के लिए मोदी सरकार का एक विजन है। वह आदिवासियों को राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत पहचान दिलाने की कोशिश में जुट गई है। अब तक ये बंटे हुए सामाजिक गुट में रहे हैं। यह बात इसलिए अहम है क्योंकि कम से कम 15 राज्यों में आदिवासी चुनावी रूप से प्रभावी हैं।
मुर्मू को देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद की पेशकश करके बीजेपी ने अपने फैसले से आदिवासी समुदाय को सर्वोच्च सम्मान दिया है। यह आदिवासियों को जोड़ने में मदद करेगा। आदिवासियों के प्रभाव वाले राज्यों में ये बीजेपी को फायदा पहुंचाएंगे। दलित अभी कई राजनीतिक दलों में बंटे हुए हैं। समुदाय की राजनीतिक आकांक्षाओं के बढ़ने के कारण ऐसा हुआ है। हालांकि, बड़ा यह है कि क्या ऐसा आदिवासियों के साथ भी होगा। कारण है कि बीजेपी की पहुंच के बावजूद इनकी राजनीतिक क्षमता बढ़ रही है।