बहुत कश्मीर कर रहा था तुर्की, मौका आया तो भारत ने UN में दबा दी लीबिया वाली कमजोर नस

नई दिल्ली

कश्मीर मुद्दे पर लगातार पाकिस्तान की भाषा बोलते आ रहे तुर्की को भारत ने संयुक्त राष्ट्र में तगड़ी लताड़ लगाई है। उत्तरी अफ्रीकी देश लीबिया में तुर्की के दखल को लेकर नई दिल्ली ने इस्तांबुल को आईना दिखाया है। संयुक्त राष्ट्र में भारत की राजदूत रुचिरा कंबोज ने जोर देकर कहा कि लीबिया की संप्रभुता, एकता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा की जानी चाहिए। दरअसल, तुर्की लीबिया में हथियारबंद विद्रोही गुटों का खुलकर साथ देते हुए वहां एक तरह से अपनी कठपुतली सरकार बैठाने की नापाक कोशिश कर रहा है।

संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के सम्मान और लीबिया में दखल से बचने की नसीहत
भारत ने लीबिया पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को ‘खुल्लम-खुल्ला धता बताने’ और उसका लिहाज नहीं करने को लेकर तुर्की की कड़ी आलोचना की है। कंबोज ने कहा कि यूएनएससी प्रस्ताव का इस तरह का उल्लंघन गंभीर चिंता का विषय है।

लीबिया पर यूएनएससी की ब्रीफिंग में हिस्सा लेते हुए रुचिरा कंबोज ने कहा कि इस तरह की गतिविधियां लीबिया के अलग-अलग गुटों के बीच 2020 में हुए संघर्षविराम समझौते का भी उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि तुर्की की इन गतिविधियों का लीबिया में पहले से ही चले आ रहे राजनीतिक गतिरोध पर बुरा असर पड़ रहा है। लीबिया में क्यों एक बार फिर हालात बिगड़े हैं, इसे भी जानेंगे लेकिन उससे पहले यह समझते हैं कि भारत ने किस तरह एक बार फिर पाकिस्तानपरस्त तुर्की की कमजोर नस दबाई है।

भारत ने दबाई कमजोर नस
हाल के वर्षों में भारत और तुर्की के रिश्तों में दूरी बढ़ी है। तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगान कश्मीर मुद्दे को लेकर लगातार भारत के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं। 2019 में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद से तुर्की लगातार इस मुद्दे पर पाकिस्तान के रुख का समर्थन कर रहा है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र के मंच से भी कश्मीर पर पाकिस्तान के रुख का समर्थन करता रहा है। भारत बार-बार अपने आंतरिक मसलों पर बाहरी देशों को टिप्पणी करने या दखल देने की कोशिश से बाज आने की नसीहत देता रहा है लेकिन तुर्की समझने को तैयार नहीं। इसलिए लीबिया मुद्दे को लेकर नई दिल्ली ने तुर्की की कमजोर नस दबा दी है। 2019 से पाकिस्तान के कश्मीर राग पर सुर मिला रहे तुर्की को भारत दो टूक और मुंहतोड़ कूटनीतिक जवाब देता आया है। उसी साल नई दिल्ली ने पूर्वोत्तर सीरिया में कुदरें के इलाकों में तुर्की की तरफ से किए जा रहे हमलों पर न सिर्फ ऐतराज जताया था बल्कि उसे सीरिया के आंतरिक मामलों में दखल करार दिया था।

सितंबर 2019 में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुर्की को सख्त कूटनीतिक संदेश दिया था। संयुक्त राष्ट्र सत्र में हिस्सा लेने के लिए अमेरिका पहुंचे पीएम मोदी ने तुर्की के तीन धुर विरोधी पड़ोसी देशों साइप्रस, आर्मेनिया और ग्रीस के प्रमुखों के साथ अलग-अलग अहम मुलाकात की थी। साइप्रस और तुर्की के बीच 1974 से विवाद चला आ रहा है। दरअसल तुर्की ने साइप्रस के उत्तरी हिस्से पर कब्जा कर रखा है और उसे टर्किश रिपब्लिक ऑफ नॉर्दन साइप्रस का नाम दे रखा है। पीएम मोदी ने राष्ट्रपति निकोस अनास्तासियादेस से मुलाकात में साइप्रस की स्वतंत्रता, संप्रभुता और क्षेत्रीय स्वायत्ता पर जोर दिया।

इसी तरह, अर्मेनिया और साइप्रस से तुर्की की दुश्मनी दशकों पुरानी है। आर्मेनिया तुर्की में अपने लाखों नागरिकों के नरसंहार का आरोप लगाता रहा है। इससे दोनों देशों में तनाव बना रहता है। एक सदी से भी ज्यादा पहले 1915 से 1918 के बीच तुर्की के आटोमन साम्राज्य ने आर्मेनिया में भीषण नरसंहार को अंजाम दिया था। करीब 15 लाख अर्मेनियाइयों को मौत के घाट उतारा गया था। उसके बाद से ही दोनों पड़ोसी देशों में कभी अच्छे संबंध नहीं रहे। तुर्की का अपने एक और पड़ोसी ग्रीस के साथ लंबे समय से समुद्र क्षेत्र को लेकर विवाद है। पीएम मोदी की इन तीन देशों के प्रमुखों से मुलाकात का मकसद तुर्की को पाकिस्तान की भाषा बोलने के खिलाफ दो टूक संदेश देना था।

लीबिया में सत्ता पर नियंत्रण को लेकर दो गुटों में होड़
लीबिया की राजधानी त्रिपोली में बीते महीने के आखिर में अचानक हथियारबंद गुटों के बीच हिंसा भड़क गई। यह पिछले दो सालों का सबसे भीषण संघर्ष है। दरअसल, 2011 में तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी को सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद से ही लीबिया में उथल-पुथल का दौर जारी है। गद्दाफी को सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद लीबिया में लोकतांत्रिक सरकार की कोशिशें हुईं लेकिन यह उत्तरी अफ्रीकी देश गृहयुद्ध और हथियारबंद मिलिसिया की प्रतिद्वंद्विता का अखाड़ा बन गया। 2014 में त्रिपोली में हुए भीषण संघर्ष के बाद एक गुट पूर्वी लीबिया की तरफ चला गया। गुट ने खलीफा हफ्तार को मिलिटरी चीफ घोषित कर दिया। इस गुट में लीबियाई संसद के ज्यादातर सदस्य शामिल हैं।

एक गुट को तुर्की का खुला समर्थन, राजधानी त्रिपोली में तैनात कर रखी है सेना
दूसरी तरफ, राजधानी त्रिपोली में प्रधानमंत्री अब्दुल हामिद दबीबेह बैठे हैं। इस गुट को तुर्की का खुला समर्थन हासिल है। त्रिपोली में तुर्की ने अपनी सेना भी तैनात कर रखी है। वहां एक एयरबेस पर तुर्की का नियंत्रण है। पूर्वी लीबिया में संसद ने दबीबेह सरकार को अवैध घोषित करते हुए फथी बाशागा के नेतृत्व में नई सरकार गठित की है। ये दोनों ही गुट लीबिया की सत्ता पर नियंत्रण की होड़ में हैं। 2019 में हफ्तार की लीबियन नैशनल आर्मी ने त्रिपोली पर नियंत्रण की कोशिश भी की थी। तब तुर्की ने दबीबेह गुट का खुलकर साथ दिया। बाद में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर शांति प्रक्रिया शुरू हुई और दोनों गुटों में संघर्ष विराम पर सहमति बनी।

शांति समझौते के मुताबिक दिसंबर 2021 में होने थे चुनाव
शांति समझौते के मुताबिक प्रधानमंत्री अब्दुल हामिद अल-दबीबेह के नेतृत्व में नई नैशनल यूनिटी गवर्मनमेंट बनी। समझौते के हिसाब से नई सरकार को दिसंबर 2021 तक राष्ट्रीय चुनाव कराने थे। लेकिन राजनीतिक तकरार के बीच चुनाव को स्थगित कर दिया गया। वोटिंग के लिए नियम क्या होंगे, उसकी प्रक्रिया क्या होगी, इस पर सहमति नहीं बनने से चुनाव प्रक्रिया खटाई में पड़ गई है। वोट के लिए कोई नई तारीख भी नहीं तय की गई है।

लीबिया के आंतरिक मामले में खुलकर दखल दे रहा तुर्की
समय पर चुनाव नहीं होने की वजह से अब पूर्वी लीबिया पर नियंत्रण रखने वाला गुट प्रधानमंत्री दबीबेह पर त्रिपोली की सत्ता छोड़ने को कह रहा है। गुट ने मार्च में दबीबेह सरकार को अवैध घोषित करते हुए फथी बाशागा के नेतृत्व में नई सरकार का ऐलान कर दिया। उसके ठीक बाद मार्चे में ही बागाशा ने त्रिपोली आने की कोशिश की लेकिन देबीबाह गुट ने उनके काफिले को रोक दिया। मई में उन्होंने फिर त्रिपोली आने की कोशिश की लेकिन कुछ देर तक चली गोलीबारी के बाद लौट गए। दूसरी तरफ, दबीबेह अड़े हैं कि वह केवल एक निर्वाचित प्रशासन को सत्ता सौंपेंगे। तुर्की ने 2020 में पूर्वी लीबिया पर नियंत्रण वाले गुट पर हमला भी किया था। वह पेट्रोलियम के मामले में धनी लीबिया पर ऐसी सरकार चाहता है जो उसके इशारों पर काम करे। लीबिया हर दिन 13 लाख बैरल तेल निकालता है। लेकिन राजनीतिक उठापटक की वजह से उसका तेल निर्यात प्रभावित होता आया है।

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