नई दिल्ली
15 मई को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने जब अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से टेलीफोन पर बातचीत की, तो इसे दक्षिण एशिया की जियो- पॉलिटिक्स में एक बड़ी घटना की तरह देखा गया। पहली बार था कि भारत ने विदेश मंत्री के स्तर पर तालिबान की सरकार के साथ इस तरह इंगेजमेंट किया था। उस बातचीत में विदेश मंत्री ने ना सिर्फ भारत और अफगानिस्तान के पुराने विरासत से जुड़े संबंधों का जिक्र किया था, बल्कि पहलगाम हमले पर मुत्ताकी के आतंक विरोधी बयान की सराहना भी की थी।
इस बातचीत के बाद जो तस्वीर 21 मई या 5 दिन बाद बीजिंग से निकल कर आई, उसे दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान और उसके आईने में तालिबान को ऐसी सच्चाई के तौर पर देखा जा रहा है, जिसे भारत चाहकर भी नजरअंदाज नहीं कर सकता। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार कबीर तनेजा कहते हैं कि भारत अच्छी तरह जानता है कि तालिबान क्या है, लेकिन ये हमारे पड़ोस का एक ऐसा सच है, जिसे हम इनकार कैसे कर सकते हैं। ये एक अस्थिर देश है जहां चरमपंथ और आतंकवाद जैसी आशंकाओं से इनकार नहीं कर सकता। वहां ऐसे समूह को स्पेस मिल सकती है जो भारत और उसके हितों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। ऐसे में भारत तालिबान के साथ वैसे ही डील कर रहा है जैसा कि किसी पड़ोसी देश को ऐसी सच्चाई वाले देश के साथ करनी चाहिए।
भारत ने बढ़ाई आउटरीच
दरअसल तालिबान को मान्यता ना देते हुए भी भारत ने पिछले साल नवंबर से ही आउटरीच की टेंपो में तेज़ी दिखाई। रूस ने जहां तालिबान को आतंकी संगठनों की लिस्ट से हटाया है तो वहीं उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान जैसे देशों ने भी संगठन से इंगेजमेंट में इजाफा किया है। भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष के दौरान तालिबान ने दोनों देशों से संयम बरतने को कहा था। इस साल जनवरी में दुबई में विदेश सचिव विक्रम मिस्री की मुत्ताकी के साथ मुलाकात के बाद ही भारत ने इस ओर अपनी गंभीरता को जाहिर कर दिया था।
पहलगाम हमले के बाद 27 अप्रैल को ज्वाइंट सचिव की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल का काबुल दौरा बहुत कुछ कहता है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार अनिल त्रिगुणायत का मानना है कि भारत और तालिबान के बीच संबंधों को अफगान और भारतीय लोगों के बीच संबंधों के प्रिज्म से देखना चाहिए । भारत ने कैपेसिटी बिल्डिंग के क्षेत्र में मानवीय मदद को लेकर हमेशा यूएनएससी प्रस्ताव के उद्देश्यों को पूरा किया है। ये भी नहीं भूला जा सकता तालिबान के इस मौजूदा शासन ने खुद आगे आकर पहलगाम अटैक की निंदा की थी और आतंक के खिलाफ लड़ाई में एकजुटता जाहिर की थी।
पाकिस्तान, अफगानिस्तान के बीच ब्रोकर बन रहा चीन
कबीर कहते हैं कि भारत के इंगेजमेंट का चीन और पाकिस्तान की ओर से हाल में साझे तौर पर अफगानिस्तान के साथ किए गए इंगेजमेंट के साथ कोई लेना देना नहीं है । चीन और पाकिस्तान की इंगेजमेंट काफी सीमित है। चीन ये कोशिश कर रहा है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच दिक्कतें कंट्रोल से बाहर ना हो जाएं। क्योंकि वो फिर चीन के लिए सिरदर्द ना बन जाएगा. चीन अपनी ओर से तालिबान और पाकिस्तानी मिलिट्री के साथ मिलकर इस तरह की स्थिरता कायम करने की कोशिश कर रही है। इसे इंगेमेंट नहीं कहा जा सकता है। जहां तक भारत के तालिबान के साथ इंगेजमेंट का सवाल है तो वो प्रकृति में द्विपक्षीय हैं। ये अफगान लोगों तक कनेक्ट का आउटरीच का मामला है।
अफगानिस्तान को साधने की कोशिश
भारत फिलहाल मुश्किल पड़ोसियों के इर्द गिर्द घिरा है। बांग्लादेश में पिछले साल जुलाई में सामने आई राजनीतिक अस्थिरता बीते एक साल बाद भी खत्म नहीं हुई है। नेपाल में राजशाही समर्थक प्रदर्शन अभी ठंडे नहीं पड़े हैं। श्रीलंका और चीन की नजदीकियां बढ़ रही हैं, दोनों देश एफटीए की संभावना तलाश रहे हैं। मालदीव के साथ भले ही रिश्ते फिलहाल सहज हों, लेकिन डेढ़ दो साल पहले वहां से बहुत मुश्किलें पेश आई थी। वहीं जिस तरह पाकिस्तान की ओर से हालिया टेंशन के दौरान अफगानिस्तान और भारत के बीच अविश्वास पैदा करने की कोशिशें की गई थी, उससे साफ है कि तालिबान के साथ इंगेजमेंट के रास्ते पर भारत अब और तेजी से आगे ही बढ़ेगा