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श्राद्ध में ब्राह्मण के गोमांस नहीं खाने पर 21 पीढ़ियां नरक में जाने का दावा गलत, मनुस्मृति में ऐसा कहीं नहीं है

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नई दिल्ली:

मनुस्मृति पर राजनीति चलती रहती है। एक मनुस्मृति के विरोध में बोलता है तो दूसरा पक्ष बचाव में तर्क देता है। सोशल मीडिया पर अभी मनुस्मृति के एक श्लोक की व्याख्या को लेकर बहस छिड़ी हुई है।

क्या है दावा?
एक्स यूजर लौटन राम निषाद का दावा है कि मनुस्मृति में ब्राह्मणों के लिए गोमांस खाने को कहा गया है। उन्होंने मनुस्मृति के 5वें अध्याय के 35वें श्लोक का हवाला दिया है।

क्या है सच्चाई?
एक वर्ग लौटन के इस पोस्ट को जहरीला और समाज में विद्वेष फैलाने वाला मान रहा है। कई लोगों ने पुलिस को टैग करते हुए लौटन की गिरफ्तारी की मांग कर रहा है।

कुछ महीने पहले भी मनुस्मृति और ब्राह्मणों को लेकर ऐसा ही दावा एक अन्य एक्स यूजर ने किया था। उसे भी गिरफ्तार करने की मांग उठी।

बहरहाल, हमने पड़ताल की कि लौटन राम निषाद ने मनुस्मृति के जिस श्लोक का हवाला दिया है, क्या सच में उसमें यही लिखा है? हमने पंडित हरगोविंद शास्त्री की व्याख्या वाली मनुस्मृति के पन्ने खंगाले। पांचवें अध्याय के 35वें श्लोक पर पहुंचा और जाना कि यहां क्या लिखा है। श्लोक है-

नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नाति मानवः।
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम्॥ ३५ ॥

पंडित हरगोविंद शास्त्री ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है- शास्त्रानुसार नियुक्त ( श्राद्ध तथा मधुपर्क में ) नियुक्त जो मनुष्य मांस को नहीं खाता है, वह मरकर इक्कीस जन्म तक पशु होता है।

इसे विस्तार से इस प्रकार बताया गया है- जिसने मांसका सर्वथा त्याग कर दिया है, उसके लिये उक्त वचन लागू नहीं है, इसी सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर कविकुलशिरोमणि ‘भवभूति’ ने अपनी अमर रचना ‘उत्तररामचरित’ के चतुर्थ अङ्क में महर्षि वसिष्ठ के लिये मांससहित तथा राजर्षि जनक के लिये मांसरहित मधुपर्क देने का उल्लेख ‘सौधातकि’ नामक वाल्मीकि शिष्य के द्वारा कहकर ‘दाण्डायन’ नामक दूसरे वाल्मीकि शिष्य के द्वारा मांसभोजियों के लिये मांस भक्षण का विधान ऋषियों ने माना है और पूज्य जनक मांसत्यागी हैं (अतः उनके लिये महर्षि वाल्मीकि जी ने दही तथा मधु से ही मधुपर्क दिया है) ऐसा कहा है।

निश्चित रूप से इस श्लोक में न ब्राह्मण का जिक्र है, ना गोमांस की, न नरक और न पीढ़ियों की। मांस का जिक्र जरूर है, लेकिन गोमांस का नहीं। जहां तक बात ब्राह्मणों के मांस खाने की है तो अगला श्लोक इसी पर है। श्लोक है-

असंस्कृतान्पशून्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्रः कदाचन ।
मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याच्छाश्वतं विधिमास्थितः॥ ३६॥

अर्थ है- ब्राह्मण (द्विजमात्र, केवल ब्राह्मण नहीं) मन्त्रों से असंस्कृत मांस को कदापि न खावे। नित्य (प्रवाह नित्यता से चला आता हुआ) विधि को मानता हुआ मन्त्रों से संस्कृत मांस को हो खावे। यानी, अगर कोई ब्राह्मण मांस खाता है तो उसके लिए शर्त रखी गई है।

फिर के श्लोकों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि मांस के लिए पशु का वध कब करना चाहिए और कब नहीं। मनुस्मृति के पांचवें अध्याय का 37वें से 39वें श्लोक में इसका विस्तरा से वर्णन है। 37वां श्लो कहता है-

कुर्याद् घृतपशुं सङ्गे कुर्यात्यिष्टपशुं तथा ।
न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत्कदाचन ॥३७॥

अर्थ- पशु मांस भक्षण की अधिक आकांक्षा होने पर घी या आटे का पशु बनाकर खावे, किन्तु व्यर्थ (यज्ञ – श्राद्ध कार्य के बिना) पशु को मारने की इच्छा कभी न करे। मूल विचार है कि व्यर्थ ( यज्ञादि कार्य के बिना ) पशुको मारने की इच्छा का भी निषेध किया गया है, फिर उसे मारकर मांस खाना तो बहुत दूर की बात है।

यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वो ह मारणम् ।
वृथापशुनः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥३८॥

अर्थ है कि व्यर्थ में (यज्ञ तथा श्राद्ध कार्य के बिना) पशु को मारनेवाला, पशु के शरीर में जितने रोएं हैं, उतने जन्म तक उस पशु को मारकर प्रत्येक जन्म में मारा जाता है। अगले श्लोक में यह बताया गया है कि यज्ञ सर्वजन की भलाई के लिए है, इसलिए उस उद्देश्य से पशु वध की अनुमति है।
Vadh

निष्कर्ष
लौटन राम निषाद ने मूल श्लोक नहीं लिखा और यह भी नहीं बताया कि यह व्याख्या उन्होंने कैसे की? क्या यह व्याख्या उनकी अपनी है या उन्होंने किसी जानकार की राय ली है? क्या उन्होंने किसी विश्वसनीय पुस्तक में प्रकाशित व्याख्या का उद्धरण दिया है? दरअसल, लौटन राम ने व्याख्या लिखते हुए तमाम गलतियां की हैं-

➤ मूल श्लोक में मांस लिखा है, लौटन राम निषाद ने इसमें अपनी तरफ से गौ जोड़कर गोमांस बता दिया।
➤ मूल श्लोक में ब्राह्मण का जिक्र नहीं है, लेकिन लौटन ने अपनी तरफ से ब्राह्मण जोड़ा।
➤ 21 पीढ़ियों का जिक्र नहीं है, 21 जन्म तक की बात कही गई है।
➤ नर्क में जाने की चेतावनी नहीं है, पशु होने की बात है।
➤ लौटन राम निषाद ने अगर यह साबित करने की मंशा से यह पोस्ट डाला है कि ब्राह्मण गोमांस खाते ही नहीं थे, बल्कि उनके लिए अनिवार्य था तो यह सरासर झूठ है। मनुस्मृति के अगले ही श्लोकों में स्पष्ट कर

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