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Wednesday, December 24, 2025
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सालों से राजनीति का अखाड़ा बन गई है थ्रिफ्ट सोसायटी—पाला बदलने के मास्टर माइंड हो गये है नेता— कब बन जाये दोस्त और कब बन जायें दुश्मन यह बात नहीं समझ पाये सदस्य

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भेल भोपाल

पिछले कुछ सालों से बीएचईई थ्रिफ्ट एंड क्रेडिट एण्ड कोऑपरेटिव सोसाइटी राजनीति का जमकर अखाड़ा बनी हुई है । पाला बदलने में मास्टर माइंड अध्यक्ष व कुछ डायरेक्टर कब किसके साथ हो जायें यह आसानी से समझ में आता है । लेकिन इस बात को 4500 आम सदस्य क्यों नहीं समझ पा रहे हैं यह सोच का विषय है बीएचईल प्रबंधन ने कर्मचारियों के हित में एक मजबूत वित्तीय संस्था थ्रिट सोसायटी के रूप में सौंपी थी जो पिछले दो दशक तो ठीक—ठाक चलती रही लेकिन पिछले कुछ सालों से राजनीति घुस जाने के कारण संस्था को काफी बदनामी झेलना पड़ रही है ।

इसका खामियाजा आम कर्मचारी सदस्यों को झेलना पड़ रहा है । राजनीति के चलते बैलेंशीट में यह भी नहीं बताया जा रहा है कि संस्था का पैसा किस बैंक में कितना जमा है वहीं संस्था की बचत बाजार व अन्य दुकानों में कितने करोड़ों का लेनदेन किस हिसाब पर हो रहा है या वॉउचरों के दम पर चल रहा है । चंद नेता सिर्फ अपनी सेखी बघारने में लगे हुये है  न कि आम सदस्यों को सही जानकारी देने की कोशिश कर रहे हैं । जिससे की उनका पैसा और संस्था सुरक्षित रहे । हाल यह है कि जिसकी ढपली जिसका राग वाली कहावत चरितार्थ हो रही है ।

अब बात वर्ष 2016 कि कर लें तो बसंत कुमार को अध्यक्ष घोषित करते हुये चुनाव लड़ा गया था । उस समय बंसत कुमार के अलावा गौतम मौरे,कमलेश नागपुरे,भीम धुर्वे,राजकुमारी सैनी,संजय गुप्ता, सत्येन्द्र कुमार चुनाव जीते थे । बसंत कुमार को सर्व सम्मति से अध्यक्ष बनाया गया । चार साल तक आपसी तालमेल बिठकार इस संस्था को संचालित करते रहे लेकिन अगले थ्रिफ्ट चुनाव के एक साल पहले इस संचालक मंडल में ऐसा विवाद पैदा हुआ कि यह लोग आपस में ही एक दूसरे के जानी दुश्मन बन गये फिर उसके बाद यही संचालक मंडल अध्यक्ष के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाते रहे और दोस्त दुश्मन बन गये और जैसे ही वर्ष 2022 में इस सोसायटी के चुनाव में एक बार फिर बसंत कुमार नये दोस्तों के साथ चुनाव मैदान में उतर गये लेकिन बड़ी बात यह है कि यहां भी अध्यक्ष पद के प्रबल दावेदार बने रहे ।

इस चुनाव में बंसत कुमार के अलावा निशा वर्मा,आशिष सोनी,रजनीकांत चौबे, राजमल बैरागी चुनाव जीतकर आये । यहां भी पूर्ण बहुमत न होने के कारण इंटक के वर्तमान अध्यक्ष अकेले राजेश शुक्ला ही अपनी पैनल से नहीं बल्कि सिक्के के टॉस से जीतकर संस्था में आये और बंसत कुमार को समर्थन दे बैठे । अब आप गौर करें कि पिछले पौने तीन साल यह संचालक मंडल बड़े प्यार मोहब्बत से चलता रहा लेकिन अचानक सितंबर माह में ऐसा क्या पहाड़ टूट पड़ा कि अध्यक्ष को पांच संचालकों को छोड़ कर विपक्ष की गोद में बैठना पड़ा ।

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बस यहीं से कहानी ने नया मोड़ ले लिया । यहां यह बताना भी जरूरी हो गया है कि राजनीति में फिर से संस्था सदस्यों के हित को दर किनार रखते हुये सोशल मीडिया पर छा गये । इससे संस्था और सदस्यों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा । अंदर की कहानी काफी लंबी है समय रहते इसे नहीं समझा तो आगे काफी नुकसान की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है । खासबात यह है कि इस मामले में भेल प्रबंधन क्यो मूकदर्शक बना हुआ है ।

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