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TV, स्कूटी, मोबाइल, लैपटॉप… मुफ्त की रेवड़ियां बंद करने से हमारे नेता डरते क्यों हैं?

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नई दिल्ली

बात चुनावों में वोटरों को लुभाने की हो, या फिर अधिक से अधिक समय तक सत्ता में बने रहने की, ‘मुफ्त’ का सब्जबाग दिखाना सफलता का शॉर्टकट बन गया है। इसे जीत की गारंटी माना जाने लगा है, लेकिन इसकी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है। हाल के दिनों में राजनीति के इस ट्रेंड के खतरों को लेकर नए सिरे से बहस शुरू हुई है। बहस की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की। उन्होंने ‘मुफ्त की रेवड़ी’ की बात कहकर इस बहस को उठाया। फिर इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप करते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि क्या वह इस मामले में कोई गाइडलाइन बना सकती है? दरअसल श्रीलंका में ध्वस्त हुई आर्थिक व्यवस्था और उसके बाद उपजी अराजकता ने इस चिंता बढ़ा दिया है। बात यह सामने आई है कि अगर सरकारें संतुलित और व्यवस्थित तरीके से आर्थिक सिस्टम को कंट्रोल नहीं करेंगी, तो आने वाले समय में श्रीलंका जैसे हालात कहीं भी बन सकते हैं। सवाल है कि क्या इससे तमाम राजनीतिक पार्टियां और सरकारें सीख लेंगी?

कैसे रुकेगा ये
मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण बना, क्योंकि पहले कई मौकों पर इसे रोकने की कोशिशें असफल हो चुकी हैं। सुप्रीम कोर्ट की ओर से पहले भी कई बार हस्तक्षेप किए गए हैं। पूर्व चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने एक मामले में चुनावी घोषणापत्र को महज कागज का टुकड़ा बताते हुए कहा था कि चुनाव बाद सभी राजनीतिक दल इसे भूल जाते हैं। यह उनका कोई सामान्य स्टेटमेंट नहीं था। चुनाव सुधार के इस अहम हिस्से को जिस तरह से राजनीतिक दलों ने नजरअंदाज किया, उससे उपजा फ्रस्ट्रेशन भी इसमें झलक रहा था।

चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट करते रहे हैं पहल
दरअसल सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग, दोनों ने राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को कानूनी कवच देने और इसे जवाबदेह बनाने की पहल की है। लेकिन राजनीतिक दलों के प्रतिरोध के कारण यह पहल अभी तक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2013 को दिए अहम फैसले में चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों से बात करके घोषणापत्र के बारे में एक कानूनी गाइडलाइन तैयार करने को कहा था। इसके बाद तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत के नेतृत्व में सभी राजनीतिक दलों की मीटिंग बुलाई गई थी। इस मीटिंग में 6 राष्ट्रीय दलों के अलावा 24 क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने भाग लिया। यहां सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर में चुनावी घोषणापत्र को लेकर आयोग के अंकुश को खारिज कर दिया था। हालांकि इसके बाद भी आयोग ने सरकार के पास चुनाव सुधार से जुड़े जो प्रस्ताव भेजे, उनमें इस बारे में अपनी राय जाहिर कर दी थी। प्रस्ताव में था कि चुनावी घोषणापत्र को आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाया जाएगा। यह भी कहा गया था कि चुनावों को जब छह महीना रह जाए, उसके बाद कोई भी सरकार नई योजनाओं का एलान नहीं करेगी और आयोग को घोषणापत्र पर स्पष्टीकरण लेने का अधिकार होगा। साथ ही चुनाव आयोग मुफ्त बांटने वाली चुनावी घोषणा को वोटरों को प्रभावित करने की कैटिगरी में लाकर ऐसी घोषणा पर रोक लगा सकता है। चुनाव आयोग ऐसे घोषणापत्रों पर अंकुश लगा सकता है, जिसका न कोई आधार हो, ना उन्हें पूरा करना संभव हो।

मुफ्त चीजें बांटने के राजनीतिक ट्रेंड ने सबसे पहले दक्षिण में अपना असर डाला। साल 2006 में डीएमके ने वहां गरीबों को टीवी सेट और 2 रुपये किलो चावल देने का वादा किया, जिसके बाद करुणानिधि सत्ता में आए। आगे चलकर जयललिता ने भी दो रुपये किलो चावल के जरिए अपनी जीत की राह खोली। वोटरों को लुभाने का यह ट्रेंड अब पूरे देश में आ चुका है। हाल के सालों में विरोधी दलों से लेकर सत्तारूढ़ दल तक सभी इस सवाल पर आक्रामक रूप से आगे बढ़ रहे हैं।

वरुण गांधी ने साधा निशाना
अभी जिस तरह पुरानी पेंशन योजना को लेकर कांग्रेस आगे बढ़ी, उससे ऐसी चिंता व्यक्त की गई कि इसका दबाव दूसरी सरकारों पर भी बढ़ सकता है। इसी तरह 2019 में आम चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने किसान सम्मान निधि के रूप में हर साल 6000 रुपये देने शुरू किए। कोविड के बाद देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का सिलसिला जारी है। इसके बाद कई राज्यों में मुफ्त बिजली देने का ट्रेंड भी शुरू हुआ है। सभी राजनीतिक दलों पर चुनाव से पहले और चुने जाने के बाद मुफ्त चीजें देने का दबाव इतना बढ़ गया है कि राज्यों का बजट घाटा लगातार बढ़ता चला जा रहा है।

सियासी नुकसान का डर
ताजा सूचनाओं के अनुसार कम से कम एक दर्जन राज्यों का बजट घाटा चिंताजनक स्तर पर जा चुका है, जहां अब तत्काल हस्तक्षेप करने की जरूरत हो सकती है। लेकिन सियासी मजबूरी बन गई है कि मुफ्त की रेवड़ियां चालू रखीपजाएं। वैसे तमाम राजनीतिक दल दबी जुबान में मानते हैं कि इसे लगातार जारी रखना संभव नहीं है। वे इसे भविष्य के लिए खतरनाक भी मानते हैं। लेकिन उनका तर्क है कि सभी पर यह समान रूप से लागू होना चाहिए। उनकी चिंता है कि अगर वे इस दिशा में सकारात्मक रुख अपनाएं और उनके सामने दूसरा दल मुफ्त की चीजें बांटकर लाभ उठा ले, तो उनका सियासी नुकसान हो जाएगा। साथ ही विपक्षी दलों का तर्क होता है कि सरकारें मुफ्त की चीजें बांटकर स्वाभाविक रूप से लाभ में रहती है, जिस कारण उनके सामने और भी आकर्षक वादा करने की चुनौती रहती है। जाहिर है, यहां सबसे बड़ी चुनौती यही है कि किस तरह सभी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाया जाए और उन्हें सामूहिक तौर पर एक स्टैंड लेने को प्रेरित किया जाए।

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